Wednesday, October 28, 2020


 ये राहों में बिखरी हुई पत्तियाँ,
ये शाखों से बिछड़ी हुई पत्तियाँ;
हमारी-तुम्हारी कथाएं हैं ये,
जगत की गहनतम व्यथाएं हैं ये,
विधाता की विधि-वर्जनाएं हैं ये,
हठी मृत्यु की गर्जनाएं हैं ये;
ये बिरहा में सूखी हुई पत्तियाँ,
ये पीड़ा से पीली हुई पत्तियां;
प्रणय की करुण गीतिकाएं हैं ये,
विखंडित ह्रदय की कलाएं हैं ये,
अधूरी रही कामनाएं हैं ये,
विवश चित्त की भावनाएं हैं ये;
ये मुरझाई, अकड़ी हुई पत्तियाँ,
ये बेठौर उड़ती हुई पत्तियाँ;
नियति की नियत क्रूरताएं हैं ये,
अचेतन हुईं चेतनाएं हैं ये,
विरति-भाव की प्रेरणाएं हैं ये,
समय की सहज देशनाएं हैं ये;
ये पेड़ों से गिरती हुई पत्तियाँ,
ये मिट्टी में मिलती हुई पत्तियाँ.......
-- आशुतोष द्विवेदी



Tuesday, July 14, 2020

तुम्हीं

मेरे ख़्वाबों के खिलने से पहले भी तुम,
मेरे ख्यालों के चुकने से आगे भी तुम,
मेरी जागी निग़ाहों में सोए हुए,
मेरी नींदों में चुपके से जागे भी तुम,
हर-इक शै से मेरी दूरियाँ भी तुम्हीं,
मुझको रिश्तों में उलझाए धागे भी तुम |

आँख से झाँकती खामुशी भी तुम्हीं,
होठ पर खेलती शायरी भी तुम्हीं,
अनछुई भावनाओं की मासूमियत,
और शब्दों की जादूगरी भी तुम्हीं,
खलवतों  में तुम्हीं, महफ़िलों में तुम्हीं, 
तुम ही संजीदगी, मसखरी भी तुम्हीं |

रोज़ बनना, बिगड़ना तुम्हारे लिए,
मेरा जीना या मरना तुम्हारे लिए,
चोटियाँ नाप आना तुम्हें ढूँढते,
घाटियों में उतरना तुम्हारे लिए,
ठहर जाना तुम्हें देखते-देखते,
और हद से गुज़रना तुम्हारे लिए |



Sunday, July 12, 2020

सहारे

हर साँस में लिपटी हुई यादों के सहारे,
जिंदा हैं किसी से किए वादों के सहारे।
गहराइयों का ज्ञान, न धाराओं की समझ,
हम तैर गए सिर्फ इरादों के सहारे ।
हासिल तो है मुश्किल मगर उम्मीद बहुत है,
रिश्ते निभा रहे हैं तकादों के सहारे।
सूखे में सारी उम्र गुजारा किया है दिल,
दो पल के तेरे सावन-ओ-भादों के सहारे।
घोड़े, वज़ीर, हाथी तो पूरे मज़े में हैं,
और जंग लड़ी जा रही प्यादों के सहारे।
मंदिर की रौनकें हैं चाहतों के नूर से,
है मूर्तियों में जान मुरादों के सहारे।

Thursday, June 25, 2020

कैद हैं

मकड़ी की तरह अपने ही जालों में कैद हैं;
ये सब दिमाग वाले खयालों में कैद हैं।
टूटे हुए दिए तो अँधेरों के हैं गुलाम,
जलते हुए चिराग उजालों में कैद हैं।
यूँ नाउम्मीद जान है, दिल इस कदर हताश,
जितने जवाब थे वो सवालों में कैद हैं।
चेहरों की चमक में तो है बनने की कहानी,
मिटने के दर्द पाँव के छालों में कैद हैं।
इक तुम हो कि जो वक्त से आगे निकल लिए,
इक हम हैं जो गुजरे हुए सालों में कैद हैं।
जो लोग दूर से बड़े खामोश लग रहे,
वो लोग और बिगड़े बवालों में कैद हैं।
कुछ प्यास की चुभती हुई जंजीर में बँधे,
कुछ हैं, जो छलकते हुए प्यालों में कैद हैं ।
उस बेपनाह रूप के अनमोल खजाने,
सब सरफिरी अदाओं के तालों में कैद हैं।

Monday, May 18, 2020

कैसे हो?

हमारी ओर भला उनकी नज़र कैसे हो?
कोई बता दे, सदाओं में असर कैसे हो?

किसी हँसी, किसी खनक, किसी दमक से है घर,
सिर्फ दीवार-ओ-दर के घेर में घर कैसे हो?

लोग कहते हैं कि दिल पर नहीं लेना कुछ भी,
सरापा दिल ही हैं जो, उनकी गुजर कैसे हो?

किसी की आस में भटकी हैं उम्र भर नज़रें,
वो न मिल जाए जब तलक तो बसर कैसे हो?

जहाज़, रेल, कर, बस के खबरनामों में,
हताश पाँव के छालों की खबर कैसे हो?

अपनी पहचान कहीं और ढूँढने वालों,
उधर है दिल तो वफ़ादारी इधर कैसे हो?

हुज़ूर, प्यास को पानी की फ़क़त है दरकार,
गला गरीब का जुमलों से ही तर कैसे हो?

जहाँ 'चमचागिरी' को 'कर्ट्सी' कहा जाए,
ऐसे माहौल में भाषा की फिकर कैसे हो?

देस मुर्दों का, यहाँ ज़िन्दगी बग़ावत है,
इलाज़ कुछ तो किया जाय, मगर कैसे हो?

Friday, May 15, 2020

गिनते थे

जिन्हें सारे सयाने लोग मँझधारों में गिनते थे,
उन्हें नादान हम कश्ती की पतवारों में गिनते थे।

कई लोगों के सच इस दौर में खुलकर उभर आये,
जिन्हें हम एक ज़माने से समझदारों में गिनते थे।

जिन्होंने हम पे' बदनामी के पत्थर जम के बरसाए,
वो सब के सब वही थे, हम जिन्हें यारों में गिनते थे।

उन्हें ग़द्दारियों की बाअदब तालीम हासिल थी,
जिन्हें हम अपनी बस्ती के वफ़ादारों में गिनते थे।

कला, साहित्य और संगीत के काफी बड़े चेहरे,
बिके थे ज़्यादातर, हम जिनको फ़नकारों में गिनते थे।

कई सालों से कर के नौकरी औकात पर आए,
कोई था दौर, जब हम खुद को खुद्दारों में गिनते थे। 

Thursday, April 9, 2020

कैसी?

नहीं आना है जब उसको तो फिर तैयारियाँ कैसी?
बिना आसानियों की आस के दुश्वारियाँ कैसी?

जो मजबूरी का धागा था, उसे तो वक़्त ने तोड़ा,
भला नज़रें मिलाने में हैं अब लाचारियाँ कैसी?

गिला-शिकवा न कोई, दर्द का साझा नहीं कोई,
ठिठोली में महज ग़ुम जाएं जो, वो यारियाँ कैसी?

जलाना और खुद जलना, यही रिश्तों का ढर्रा है,
न ज़ख्मों पर नमक छिडकें तो रिश्तेदारियाँ कैसी?

पकड़ती हैं जो जिस्मों को, नहीं है उनसे डर इतना,
ये ज़हनों को जकड़ती जा रहीं बीमारियाँ कैसी?

जो इक घुड़की में  दब जाएं, दरी बनकर जो बिछ जाएं,
फिरें दफ्तर के गलियारों में ये खुद्दारियाँ कैसी?

जहाँ रंगों का मौसम था, वहाँ दंगों का मौसम है,
तो फिर मासूम हाथों में भला पिचकारियाँ कैसी?

Tuesday, January 14, 2020

जो कागज़ नहीं दिखाएंगे.....


उनको संबोधित एक कविता, जो आजकल ज़ोर-शोर से गा रहे हैं - "हम कागज़ नहीं दिखाएंगे...." :-

जब रामलला की जन्मभूमि पर मंदिर का मुद्दा आया,
है याद तुम्हें किस बेशर्मी से तुमने कागज़ माँगा था?
तुमको खुश करने की खातिर ट्रक-भर कागज़ बर्बाद गए,
सत्तर सालों तक रामलला को कोर्टरूम में टाँगा था |
अब तुमसे कागज़ माँग लिए तो क्यों इतनी बेचैनी है?
जो सच है, उसे कहो, क्यों झूठी भावुकता फैलाते हो?
'हम कागज़ नहीं दिखाएंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे'
बच्चों वाली अपनी जिद को तुम क्रांति-गीत सा गाते हो !
सबको अपनाता है भारत, सबको दुलराता है भारत,
फिर भी भारत है एक राष्ट्र, यह खुली सराय नहीं कोई |
अपने नागरिकों के सारे अधिकार सुनिश्चित करने का,
कागज़ देखे जाने से हटकर और उपाय नहीं कोई |
यह संविधान, गीता-कुरान, सदग्रंथ-ज्ञान, धन का विधान,
वेतन-पेंशन, शादी-तलाक, सब कुछ कागज़ के अन्दर है;
पैदा होने से लेकर के अंतिम यात्रा पर जाने तक,
हर एक मोड़ पर जीवन के बस कागज़ का ही चक्कर है |
माना सच्ची भावुकता कागज़ की मोहताज़ नहीं होती,
पर शासन की मजबूरी है, वह कागज़ से पहचान करे |
ऐसे में, देश-भक्त है जो, वह पहले कागज़ दिखलाए,
घुसपैठ पकड़ पाने में यूँ शासन का काम आसान करे |
उनको भी जाकर समझाए जिनको कागज़ की समझ नहीं,
किस-किस कागज़ से काम चलेगा, यह सब उनको बतलाए |
हाँ, देश-प्रेम की आड़ लिए जो अपने हित को साध रहा,
उससे यह नम्र निवेदन है, वह खुलकर सम्मुख आ जाए |
इसलिए कि हठ-धर्मी होकर जो ऐसे गाने गाएंगे -
'हम कागज़ नहीं दिखाएंगे, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे',
उन सबको ध्यान रहे इतना यह बीस-बीस का भारत है,
वे ढंग से कूटे जाएंगे, दौड़ाकर सूते जाएंगे |