Tuesday, December 27, 2016

आँसुओं की मौत पर - एक कविता

आज हम लिखते हैं आओ,
आँसुओं की मौत पर |
आँख है सूखी हुई, रूखी हुई,
और नज़र जैसे तप रही मरुभूमि,
वीरानी लपेटे |
क्षितिज तक बिखरी हुई, बंज़र पड़ी,
मनहूस घबराहट;
कलेजा मुँह को आ जाए,
तपिश कुछ इस तरह की |
सुनाई दे रही हैं घरघरातीं,
किसी उजड़े हुए से कारखाने की तरह,
अपनी ही घायल धड़कनों की सख्त आवाज़ें |
फफकती, हाँफती, उखड़ी हुई साँसें,
कि जैसे धौंकनी रफ़्तार में चलती हुई हो |
बदन को जकड़ती नस-नाड़ियाँ,
जिनमें नहीं है खून, शायद,
बह रहा पिघला हुआ लोहा |
सताए धधकती उद्दाम तृष्णा के,
पड़े पीले हुए, पतझार में लाचार,
मुरझाए हुए पत्तों से बेसुध फड़फड़ाते होठ |
होठों की दरारों से डरी, सहमी हुई सी झाँकती
कुछ बोलने की, या
किसी को ज़ोर से आवाज़ देने की तड़प,
चाहत बहुत कुछ कह गुज़रने की |
कटीली झाड़ियों की तेज़ नोकों में फँसे, लिपटे,
अधूरी आस के आँचल के अगणित चीथड़े |
इन चीथड़ों के साथ चिंदी हो गए
सपनों के दस्तावेज सारे |
नीतियों की चीखतीं मासूम चिड़ियों 
के कटे पाँखों के रेशे |
किसी खूँखार, गुस्साए हुए, बेचैन,
भूखे भेड़िये सा घूरता सूरज |
यहाँ सड़ती हुईं, दुर्गंध फैलाती हुईं,
लाशें हमारे आँसुओं की,
एक-दूजे पर लदी, लेटी हुई हैं |
इन अभागे आँसुओं की मौत पर
अब और ज़्यादा क्या लिखें?
भगवान, इनकी आत्मा को शांति देना |


-    आशुतोष द्विवेदी
     28.12.2016