नहीं आना है जब उसको तो फिर तैयारियाँ कैसी?
बिना आसानियों की आस के दुश्वारियाँ कैसी?
जो मजबूरी का धागा था, उसे तो वक़्त ने तोड़ा,
भला नज़रें मिलाने में हैं अब लाचारियाँ कैसी?
गिला-शिकवा न कोई, दर्द का साझा नहीं कोई,
ठिठोली में महज ग़ुम जाएं जो, वो यारियाँ कैसी?
जलाना और खुद जलना, यही रिश्तों का ढर्रा है,
न ज़ख्मों पर नमक छिडकें तो रिश्तेदारियाँ कैसी?
पकड़ती हैं जो जिस्मों को, नहीं है उनसे डर इतना,
ये ज़हनों को जकड़ती जा रहीं बीमारियाँ कैसी?
जो इक घुड़की में दब जाएं, दरी बनकर जो बिछ जाएं,
फिरें दफ्तर के गलियारों में ये खुद्दारियाँ कैसी?
जहाँ रंगों का मौसम था, वहाँ दंगों का मौसम है,
तो फिर मासूम हाथों में भला पिचकारियाँ कैसी?
बिना आसानियों की आस के दुश्वारियाँ कैसी?
जो मजबूरी का धागा था, उसे तो वक़्त ने तोड़ा,
भला नज़रें मिलाने में हैं अब लाचारियाँ कैसी?
गिला-शिकवा न कोई, दर्द का साझा नहीं कोई,
ठिठोली में महज ग़ुम जाएं जो, वो यारियाँ कैसी?
जलाना और खुद जलना, यही रिश्तों का ढर्रा है,
न ज़ख्मों पर नमक छिडकें तो रिश्तेदारियाँ कैसी?
पकड़ती हैं जो जिस्मों को, नहीं है उनसे डर इतना,
ये ज़हनों को जकड़ती जा रहीं बीमारियाँ कैसी?
जो इक घुड़की में दब जाएं, दरी बनकर जो बिछ जाएं,
फिरें दफ्तर के गलियारों में ये खुद्दारियाँ कैसी?
जहाँ रंगों का मौसम था, वहाँ दंगों का मौसम है,
तो फिर मासूम हाथों में भला पिचकारियाँ कैसी?
वाह द्विवेदी जी वाह! क्या खूब लिखा है! बहुत कुछ कह दिया। आप अक्सर कहते हो कि काव्य का आनंद लेना चाहिए पोस्टमॉर्टम नहीं करना चाहिए। इस लिए ज़्यादा कॉमेंट नही कर रहा हूं।
ReplyDeleteWahhh kya khub likha hai
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