Monday, July 9, 2018

ख्वाहिशें

कभी मैं सोचता हूँ, बस हवा के साथ बह जाऊँ;
कभी मैं सोचता हूँ, हर गली में याद रह जाऊँ; 
कभी मैं सोचता हूँ, बाँसुरी की धुन में बोलूँ मैं;
कभी मैं सोचता हूँ, भ्रमर की गुनगुन में बोलूँ मैं;
कभी मैं सोचता हूँ, शंख कि साँसों में भर जाऊँ;
कभी मैं सोचता हूँ, सीप के दिल में उतर जाऊँ;
कभी मैं सोचता हूँ, हर व्यथा का गान बन जाऊँ;
कभी मैं सोचता हूँ, होठ पर मुसकान बन जाऊँ;
कभी मैं सोचता हूँ, इन्द्रधनु में नए रँग भर दूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, पीले पत्तों को हरा कर दूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, पेड़ की शाखों पे’ जा लटकूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, जंगलों में दूर तक भटकूँ |
कभी मैं सोचता हूँ, सोचने का कायदा क्या है?
कभी मैं सोचता हूँ, सोचने से फायदा क्या है?
कभी मैं सोचता हूँ, “सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ |”
कभी मैं सोचता हूँ, “ना ही होता, किसलिए मैं हूँ?”
कभी मैं सोचता हूँ, भीड़ में पहचान बच पाए;
कभी मैं सोचता हूँ, दफ्तरों से जान बच पाए;
कभी मैं सोचता हूँ, घर से बाहर भी न आऊँ मैं;
कभी मैं सोचता हूँ, देर तक घर ही न जाऊँ मैं |
कभी मैं सोचता हूँ, जी को हर दम कैसे बहलाऊँ?
कभी मैं सोचता हूँ, बोर होकर मैं न मर जाऊँ!
कभी मैं सोचता हूँ, ब्रह्म के परिमाप को खोजूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, सिर्फ अपने आप को खोजूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, सब किताबें ज़हन में भर लूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, सब किताबों को दफ़न कर दूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, गीत की ऊँचाइयाँ छूलूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, मौन की गहराइयाँ छूलूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, काव्य-कृति में ज़िन्दगी भर दूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, ज़िन्दगी को काव्य-मय कर दूँ;
कभी मैं सोचता हूँ, सब हदों के पार हो जाऊँ;
कभी मैं सोचता हूँ, टूट कर दो-चार हो जाऊँ |
मगर, सोचा हुआ सब आदमी का, हो कहाँ पाता?
इसी अफ़सोस के साए में दिल ये शेर दोहराता –
“हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे’ दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले |”