Monday, November 3, 2014

अनुप्रास अलंकार का प्रयोग




कुंदन की कांति काढ़ि काया करी कामिनी की,

कोमल, कुलीन, कल्पनामयी कुमारी की ।

कोई कहे केकी, कोई कोकिला, कमल कोई,

कोई कहे कामना कृतार्थ कामनारी की ।

कोई कहे काव्य, कोई कला का कलाप कहे,

कंठ-कंठ कूजित कीरति किलकारी की ।

कोटि-कोटि काम कृत-कल्प करें क्रोध किन्तु,

काट कहाँ कुटिल कटाक्ष की कटारी की !


-- आशुतोष द्विवेदी 

Thursday, September 25, 2014

घनाक्षरी

(१)
आज आयी मेरी याद, उसे बरसों के बाद, चित्त ने कहा प्रसाद बन चढ़ने को आज |
सब सुध-बुध खोई, अब रोके नहीं कोई, अश्रु-मणियाँ पिरोयीं  माल गढ़ने को आज |
ऐसा लगता है प्यार, कस कमर तैयार, छोड़ पीछे ये संसार आगे बढ़ने को आज |
शब्दों ने मचाया शोर, बहे रस पोर-पोर, गए भाव झकझोर छंद पढने को आज |

(२)
तुम्हें सूझती ठिठोली, मेरी जान जा रही है, यूँ न खेल करो, ऐसे अंगड़ाइयाँ न लो |
कोई मर जाएगा तो क्या मिलेगा तुम्हें बोलो! बिन बात सर अपने बुराइयाँ न लो |
मेरी महफिलें छूटीं तुम्हें याद करने में, अब मुझसे ये मेरी   तनहाइयाँ न लो |
कहीं का तो प्रिये छोड़ो, चाहे जोड़ो, चाहे तोड़ो, पल में ही उम्र भर की कमाइयाँ  न लो |

(३)
क्वार की ये क्वारी-क्वारी धूप लगती है भारी, प्यारी तेरे प्यार की खुमारी नहीं जाती है |
सुबह की बेकरारी, शाम की उमंग सारी, चित्त की अटारी से उतारी नहीं जाती है |
तेरी कारी-कजरारी अँखियों की सेंधमारी, ऐसी है बिमारी कि सुधारी नहीं जाती है |
कुछ भी हो सुकुमारी, मौसम की बलिहारी, तेरी याद से हमारी यारी नहीं जाती है |

(४)
कुछ मुस्कुराहटों से, दर्द भारी आहटों से, यूँ पिरोया हुआ जिंदगी का हार ले लिया |
थोड़े फूल चुन लिए, थोड़ी रौशनी मिला ली, थोड़ा सा प्रथम प्यार का खुमार ले लिया |
कभी हलके हुए तो फिक्र अपनी भी नहीं और कभी सारी दुनिया का भार ले लिया |
छंद कहना न छूटा , लाख समय ने लूटा, शब्द कम पड़ गए तो उधार ले लिया |

                                                                                         -- आशुतोष द्विवेदी 

सरस्वती वन्दना


कविता

शब्दों को चूने दो,
अब धरती छूने दो
भावों की शाखों,
विचारों की डाली से;
हैं  पक चुके अब ये,
हैं भर चुके अब ये
जीवन के रस से,
अनुभव की हुलस से;
अब अधरों पर छाने दो,
भीतर तक जाने दो
आनंद कविता का,
गीतों की सरिता का
संगम हो जाएगा
सपनों की नदिया से,
भीतर की दुनिया से
आवाज़ें आती हैं,
अब तक बुलाती हैं,
ना जाने किसको वे !
अब चाहे जिसको, वे
चुप ही हो जायेंगी
जब गुनगुनायेंगी,
रस पी पी जायेंगी
उन पक्के शब्दों का
जिनमें मधुरता है
भीनी मादकता है
उन्मत्त करती जो
वो उड़ान भरती जो – 
तिरता रहता है मन
नभ में करता क्रीड़न
बादल के  टुकड़ों से,
चिड़ियों की टोली से,
तारों की झिलमिल से,
चंदा की महफ़िल से
चीज़ें चुरा लेता
जिनको छुपा लेता
यादों के झोले में,
मुस्कानें, उम्मीदें,
फुरसत, सुकूँ, नींदें;
सूरज से बचता है,
जलने से डरता है,
फिर भी कभी
छेड़ आता है धीरे से;
ऐसे आज़ादी है
अवसर जो देती है
अपनी हर सीमा से
बाहर निकलने का,
खुलकर मचलने का,
जीने का, मरने का,
या फिर सच्चे अर्थों में
प्यार करने का |

-- आशुतोष द्विवेदी