Friday, September 27, 2019

हाल हमारा जाने है

कही न जाए बात प्यार की, ज़ुबाँ क्यों अटक जाती है?
बात गले तक आते-आते जाने क्यों थक जाती है?
कैसी है उधेड़बुन जिसने उलझाए रखा मन को?
क्या है यह कस्तूरी जो भरमाए जाती जीवन को?
लगातार भटकाती जाए भूल-भुलैया भावों की,
रह जाती है बहुत ज़रा सी गुंजाइश ठहरावों की |
ठहरावों में सदा रही फिर नए सफर की तैयारी,
हँसने वाली आँखों में भी छिपी कहीं कुछ नमी रही;
कोई गीत जिसे पूरा करने में इतने गीत रचे,
उसके पूरा होने में हर बार ज़रा सी कमी रही |
लेकिन, कहाँ हार सकता मन सदा तुम्हारी चाह लिए,
फिर-फिर निकले चरण राह में रोज़ नया उत्साह लिए |
नए गीत छलके आँखों से, नए छंद परवान चढ़े,
अर्थों के पट पर शब्दों ने नए-नए प्रतिमान गढ़े |
कायम रहे तिलिस्म तुम्हारा, पल-पल मन को याद रहा,
तभी तुम्हारा नाम मुझे गूँगे के गुड़ का स्वाद रहा;
आँख खोलती जिस कविता की नज़रें तुम पर उठ जाएं,
कसमों-बिंधे होठ कैसे फिर उस कविता को गा पाएं?
एहतियात इतनी बरती फिर भी सुगंध सी बिखर गई,
इस भँवरे का फूल कहाँ है? कली-कली तक खबर गई |
हर तितली को पता चल गया, हर मधुमक्खी जान गई,
भँवरे की अनबोली चाहत हर क्यारी पहचान गई;
वही फूल बेखबर रहा बस, अपनी धुन में मस्त रहा,
केवल जिसके कारण भँवरा गुनगुन का अभ्यस्त रहा |
बागीचे भर गाता फिरता, हर कोने हो आता है,
उस गुल के ही इर्द-गिर्द भँवरा क्यों चुप हो जाता है?
जिस गुनगुन पर इतराता है, मात उसी से खा जाता,
और कभी टोको तो उड़ते-उड़ते यूँ दोहरा जाता -
'पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है |'

-- आशुतोष द्विवेदी 

Thursday, February 21, 2019

चोर घुस गए कैसे भीतर?


चोर घुस गए कैसे भीतर?
आओ, दरबानों से पूछें !
(१)
दस-दस पहरेदार दिए थे,
हाथों में हथियार दिए थे,
थी ड्यूटी दिन-रात बजानी,
चौबीस घंटों की निगरानी;
चूक हो गई क्यों ऎसी फिर?
चोर घुस गए कैसे आखिर?
सेंध लगाई गई कहाँ पर,
चलकर तहखानों से पूछें !
(२)
एक सिपाही बोला रोकर,
एक कहानी कहता हूँ, सर,
एक रात नज़रों से छुप के,
चोर घुसा एक चुपके-चुपके;
मेरे भाई ने पकड़ा था,
अपनी बाँहों में जकड़ा था;
सिसक उठा वह इतना कहकर –
और निगहबानों से पूछें !
(३)
उसके सुर में सुर लिपटाए,
और सिपाही कहने आए –
चोर पैरवीवाला था जी,
वो मालिक का साला था जी;
धुत्त नशे में आया वापस,
जुआ खेलकर लौटा था बस,
खूब लड़ा पकड़े जाने पर,
साथी मरदानों से पूछें !
(४)
शोर सुना तो मालिक आए,
औ’ साले को पिटता पाए,
लाल हो गए मालिक-मलकिन,
खो बैठे थे आपा उस छिन;
मेरे भाई को धर पीटा,
खूब लताड़ा, खूब घसीटा,
किया काम से उसको बाहर,
किन आँखों-कानों से पूछें ?
(५)
किया पुलिस के उसे हवाले,
पड़े ज़मानत के भी लाले,
तब से हमने सबक लिया है,
जाने किसकी पहुँच कहाँ है?
कोइ नहीं देगा शाबाशी,
हल्की-फुल्की करो तलाशी;
जो जाता, जब जाए भीतर,
हम क्यों मेहमानों से पूछें?
(६)
इस चक्कर में चोर घुस गए,
रात नहीं, थी भोर, घुस गए;
छोड़ रहे थे नया शगूफा,
बनते थे मालिक के फूफा;
‘फूफा जी से भिड़ने जाएं,
फिर मालिक के जूते खाएं?
फिर पिट जाएं, ड्यूटी देकर?’ -
बड़े खानदानों से पूछें ! 
(७)
जो गरीब ड्यूटी देता है,
बदले में रोज़ी लेता है;
रोज़ी को ईमान समझता,
ड्यूटी अपनी शान समझता;
उसे समझना बिना सियासत,
वेतन के संग देना इज्ज़त;
‘कर पाएंगे बड़े-बड़े दर?’ –
क्या बेईमानों से पूछें !!


-- आशुतोष द्विवेदी
(पुलवामा हमले के बाद)