Wednesday, March 8, 2017

इस बसंत में..........

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

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नभ से झरते रस-भीने अंगारे थे,
आग लगा देते थे फिर भी प्यारे थे ।
बूँद-बूँद में था संकेत छिपा गहरा,
और सकल परिवेश तनिक ठहरा-ठहरा ।
इतने में ही कहीं दामिनी तड़प उठी,
गति की मर्यादा रखनी थी क्या करती?

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

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भीनी-भीनी मदिर हवा का इठलाना,
छूते ही जैसे गुदगुदी मचा जाना ।
रिमझिम के ही बीच प्रसूनों का खिलना,
एक महीने में दो ऋतुओं का मिलना ।
यही मिलन की बेला जादू करती थी,
एक अनूठी पुलकन प्राणों में भरती ।

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

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नैतिकता के नियम हटे धीरे-धीरे,
संयम के अनुबंध कटे धीरे-धीरे ।
धीरे-धीरे फिर आँखों ने स्वप्न गढ़े,
करूण हृदय ने फिर श्रृंगारिक छंद पढ़े ।
फिर मादकता रोम-रोम से फूट पड़ी,
कुछ सँकुचाई सी थोड़ी डरती-डरती ।

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

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