Sunday, May 21, 2017

कुछ ताज़ा पंक्तियाँ

आँसुओं की पीरिऑडिक (periodic) शॉवरिंग (showering) तो चाहिए 
शायरी बगिया है, रेगुलर (regular) वाटरिंग (watering) तो चाहिए 

ज़िक्र से तेरे, ज़ुबाँ पर इक चटक सा टेस्ट (taste) है,
ज़िन्दगी की प्लेट (plate) में कुछ सीजनिंग (seasoning) तो चाहिए 

जी हुज़ूरी पर कड़े कानून बनवाते नहीं?
मगर मक्खन पर ज़रा सी राशनिंग (rationing) तो चाहिए 

ख्वाहिशों की लाश पर बकवास मत करिए, जनाब,
झूठ कैसा भी हो, वैलिड (valid) रीज़निंग (reasoning) तो चाहिए 

बहुत उम्मीदों से हमने आपको सौंपी कमान,
अब इन उम्मीदों को थोड़ी वेल-विशिंग (well-wishing) तो चाहिए 

रोड (road) पर मोटर (motor) को दौड़ाने के पहले जाँच लें,
पार्ट्स (parts) की प्रॉपर (proper) फिटिंग (fitting) और सर्विसिंग (servicing) तो चाहिए 

देर से आना गलत, तो देर से जाना गलत,
दफ्तरों में वेल-डिफाइंड (well-defined) टाइमिंग (timing) तो चाहिए 

काम जिसका हो, करे वो, और बस वो ही करे,
वर्क-आर्डर (work-order) में क्लियर-कट (clear-cut) लाइनिंग (lining) तो चाहिए 

 

Friday, April 28, 2017

ग़ज़ल

मौसम है दगाबाज़, कभी सर्द, कभी गर्म
जैसे तेरा मिजाज़, कभी सर्द, कभी गर्म

तासीर आज तक तेरी पकड़ी नहीं गयी,
कभी खुश, कभी नाराज़, कभी सर्द, कभी गर्म

अपनों ने सुनाई भी तो कुछ रंज नहीं है,
ये प्यार की आवाज़, कभी सर्द, कभी गर्म

ये चाल, ये चलन, कि कभी रात, कभी, दिन,
ये नाज़, ये अंदाज़, कभी सर्द, कभी गर्म

साँसों के हैं सुर-ताल, कभी मंद, कभी, तेज़,
है धड़कनों का साज़, कभी सर्द, कभी गर्म

नव्ज़ों में लहू बन के दौड़ने लगा है इश्क़,
अब जो भी हो इलाज़, कभी सर्द, कभी गर्म


Tuesday, April 11, 2017

मन में भावों की सरिता......

मन में भावों की सरिता जब अपनी गति से बलखाती है
मैं कविता करता नहीं और कविता खुद ही हो जाती है
***
कविता मयंक की शीतलता, कविता है रवि का तेज प्रबल
कविता उपासना है, कविता माँ का स्नेहिल पावन आँचल
जलना कविता की शैली है, वह वीरों की प्रज्ज्वलित कथा
अधरों पर सजती मधुर हँसी, नयनों में तिरती मौन व्यथा
कविता स्वप्नों का मूर्त रूप, कविता यथार्थ का चित्रण है
कविता जागती का अलंकार, कविता समाज का दर्पण है
संतों की वाणी में, कविता बसती स्वराष्ट्र के वंदन में
कविता बसती कविता को जीने वालों के अभिनंदन में
मैं नहीं भगीरथ हो सकता, पर कविता पतित-पावनी है
धरती को निर्मल करने को बहती अनंत से आती है |
***
मन के भीतर तक गहरे घावों को भर देती है कविता
सुंदर, मंगलमय भावों को गहरा कर देती है कविता
लेकर मशाल आंदोलन की आगे बढ़ जाती है कविता
मानवता की रक्षा में सूली पर चढ़ जाती है कविता
दो-चार बार क्या, बार-बार विषपान किया है कविता ने
फिर वर्तमान की ध्वनियों को विस्तार दिया है कविता ने
कविता आवाहन मंत्र बनी, कविता मन का विश्वास बनी
घुट-घुट कर मरते लोगों को नवजीवन देती श्वास बनी
मेरे अधरों की गति प्राकट्य नहीं है मेरी प्रतिभा का,
कविता तो स्वयं बैठ जिह्वा पर मीठे राग सुनाती है |
***

जब-जब प्रकाश की माँग हुई तब दीपक कवि की देह बनी
जीवन बाती सा दहक उठा, कविता फिर हँसकर नेह बनी
कविता रातों को जागी है, दिनकर को प्रात जगाया है
जब-जब तम गहन हुआ तब-तब कविता ने दीप जलाया है
कविता संस्कृति का व्यक्त रूप, कविता परंपरा का वाहन
कविता राघव का धनुष-बाण, है मोहन का वंशी-वादन
सबके दुख में है आर्द्र हुई अपने दुख पर मुसकाई है
कितनी आँखों में झाँका तब जाकर कविता बन पाई
है इसे समझना कठिन बहुत, अंदाज़ अनोखा कविता का,
कविता खुद प्यासी रहकर भी औरों की प्यास बुझाती है
***
देखो स्वराष्ट्र की रक्षा में होते कितने बलिदान अमर
देखो जौहर करने वाली बालाओं का अभिमान अमर
चकवा शशि की आशा में देखो अंगारों को खाता है
चातक का प्रेम निराला देखो अंगारों को खाता है
थी चहल-पहल जिसमें पहले, देखो इस सूने आँगन को
पतझड़ में मुरझाकर, बसंत में फिर से खिलते उपवन को
इनमें तलाश कविता की, निर्भर है दृष्टा के दर्शन पर
पत्थर भी चेतन हो उठते हैं करुणामय आवाहन पर
सौभाग्यवान हूँ मैं, दो बूँदें मिल जाती हैं मुझको भी,
जब हो कृपालु माँ वाणी भू पर काव्यामृत बरसाती है
***




Wednesday, March 8, 2017

इस बसंत में..........

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

***
नभ से झरते रस-भीने अंगारे थे,
आग लगा देते थे फिर भी प्यारे थे ।
बूँद-बूँद में था संकेत छिपा गहरा,
और सकल परिवेश तनिक ठहरा-ठहरा ।
इतने में ही कहीं दामिनी तड़प उठी,
गति की मर्यादा रखनी थी क्या करती?

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

***

भीनी-भीनी मदिर हवा का इठलाना,
छूते ही जैसे गुदगुदी मचा जाना ।
रिमझिम के ही बीच प्रसूनों का खिलना,
एक महीने में दो ऋतुओं का मिलना ।
यही मिलन की बेला जादू करती थी,
एक अनूठी पुलकन प्राणों में भरती ।

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

***

नैतिकता के नियम हटे धीरे-धीरे,
संयम के अनुबंध कटे धीरे-धीरे ।
धीरे-धीरे फिर आँखों ने स्वप्न गढ़े,
करूण हृदय ने फिर श्रृंगारिक छंद पढ़े ।
फिर मादकता रोम-रोम से फूट पड़ी,
कुछ सँकुचाई सी थोड़ी डरती-डरती ।

इस बसंत में जाने किसकी प्यास लिए,
बादल ऐसे बहके, सरस हुई धरती !!

***



Monday, February 27, 2017

दिल (एक नज़्म ग़ालिब के नाम)


दिल मेरा कुछ दिनों से रूठा है
मुझसे ऐसे कि बोलता ही नहीं
मेरे कुछ राज़ छिपाए बैठा
जिनकी पर्तों को खोलता ही नहीं
मेरी यादों के बंद डिब्बे में,
मेरे बचपन के चन्द कैसेट हैं
एक सीडी भी है जवानी की
लेकिनइनको मैं चलाऊँ कैसे
वीसीपीटीवी औ सीडी प्लेयर
सब मशीनें हैं दिल के कमरे में
’ वो कमरा है बंद मेरे लिए 
कुछ दिनों पहले नहीं था ऐसा
वो दिल का कमरा जैसे मेरा था
बैठकर जिसमें काफ़ी देर तलक
हाथ में वक़्त का रिमोट लिए
वीडिओ में पुरानी यादों के
ढूँढता खोये हुए ख़ुद को मैं
सिलसिला टूट गया है तब से
दिल मेरा रूठ गया है जब से 
क्यों हुआकैसे हुआक्या मालूम ?
सोचता हूँ तो सिर्फ उलझन ही
हाथ आती है और कुछ भी नहीं
बुझा-बुझा सा है हर एक ख़याल
उठता रह-रह के यही एक सवाल 
दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है?
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?”

Wednesday, February 22, 2017

चुनावी भजन

अब सौंप दिया है वोटों का भंडार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
****
हममें तुममें बस भेद यही, हम जनता हैं, तुम नेता हो;
सत्ता के मैराथन में तुम निर्णायक, तुम्हीं विजेता हो |
जैसे-तैसे निर्मित करना सरकार, तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
****
तुमसे ज्यादा उम्मीद नहीं, तुम मूड बदलते हो पल में;
बिन पेंदी के लोटे जैसे, कभी इस दल में, कभी उस दल में |
है राजनीति का यह सारा व्यापार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
****
हम स्वेच्छा से मत देते हैं, उस पर भी घात लगाते हो;
इस लोकतंत्र के दंगल में सब अपने दाँव दिखाते हो |
हर साजिश, हर हथकंडा, हर हथियार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
****
वादों की झोली फैलाकर फिर हमको दर्शन देते हैं;
यह भारत का गौरव है, याचक भी आश्वासन देते हैं |
कुछ काम करो, फिर हमने दिए अधिकार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
****

Wednesday, February 15, 2017

आओ हे ऋतुराज


आओ हे ऋतुराज, तुम्हारा स्वागत है,
बहुत दिनों के बाद सही, तुम आए तो |
***

बिछड़ गए पेड़ों से, लेकिन रो न सके,
मुरझाए पत्ते इतने मजबूर हुए;
रंग, रूप, रस और गंध के चित्रों से,
नयन हमारे जैसे कोसों दूर हुए |
पतझड़ जो हरियाली लेकर चला गया,
              उपवन तक फिर से लौटा कर लाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

उजड़े मौसम का हर पल युग जैसा था,
मौन अधर प्यासे, उदास, अकुलाए थे;
सूनी डालें राह निहारा करती थीं,
माली भी सूनेपन से घबराए थे |
लेकिन अंतर में अब कोई क्लेश नहीं,
              आज सुमन फिर आँगन में मुसकाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

मंजरियों की सुरभि हवाओं में फैली,
कलियों ने खिलकर सादर सत्कार किया;
रूप सृष्टि का आज निखर आया ऐसे,
जैसे कवि ने कविता का शृंगार किया |
आज तितलियों के पंखों ने गति पायी,
                चलो, भ्रमर फिर मस्ती में बौराए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

 नयनों में, अधरों पर खुशियाँ छा जातीं,
राग-रंग फिर से यौवन को पा जाते;
हृदयों पर संदेश तुम्हारी खातिर था,
अच्छा होता जितनी जल्दी आ जाते |
बस मेरी बगिया की कोई बात नहीं,
                 कहीं और ही सही, कोकिला गाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***