Sunday, March 5, 2023

कागज़ पर

 पेश है ताज़ा ग़ज़ल, आप सभी मित्रों के लिए:-


आओ विकसित देश बनाएं कागज़ पर,

छल-छद्मों की गणित चलाएं कागज़ पर।


हम, तुम, वो, सब कागज़ के हैं शेर, मियाँ!

कस के चलो दहाड़ लगाएं कागज़ पर।


क्या सच है, क्या झूठ? हमारी कलम गढ़े,

ऊपर, नीचे, दाएं, बाएं, कागज़ पर।


जो स्नातक में भी उत्तीर्ण न हो पाए,

आओ, उनको शोध कराएं कागज़ पर।


जो आँखों से अंतर्मन तक नीरस हैं,

उनने लिख मारी कविताएं, कागज़ पर।


आँखों-देखी को झुठलाएं कागज़ पर,

मनचाही तस्वीर सजाएं कागज़ पर।


- आशुतोष द्विवेदी

Friday, December 30, 2022

धीमी बारिश में

 हम अलग होने के बिल्कुल पहले,

धीमी बारिश में दूर तक टहले।

ज़मीन ताकते, हाथों में कस के हाथ लिए,

महकी यादों के कारवाँ दिलों में साथ लिए।

काँपते होठ, ज़ुबाँ ठहरी, थकी-हारी नज़र,

अपने हिस्से के शब्द खोजते अपने भीतर।

तरसते कान कि एक-दूजे की आवाज़ सुनें,

उदास खामुशी में लिपटा कोई राज़ सुनें।

आने वाले पलों के दर्द टटोलें, सोचा,

दूर होने के दुख में फूट के रोलें, सोचा।

ये भी सोचा कि जो तनहाई आने वाली है,

वो आँसुओं की घटा साथ लाने वाली है।

जब वो बरसेगी अकेले में, भला क्या होगा?

तन तो भीगेगा मगर मन सुलग रहा होगा!

वो आग कोई भी बारिश बुझा न पाएगी,

हर एक धार जलन और बढ़ा जाएगी।

इसी तरह के खयालों से जूझते दोनों,

एक-दूजे के तड़पने को बूझते दोनों,

फिर भी चुप हैं ये सोच के कि क्या कहें आखिर?

जब बिछड़ना है तो चुप- चाप विदाई लें फिर!

हाँ, मगर बेशुमार बतकही का मन भी है,

शोर करती हुई भीतर कोई धड़कन भी है!

इसी उधेड़बुन के साथ हर कदम रखते,

मुस्कुराते हुए आपस का हम भरम रखते।

काश! ये वक्त इसी मोड़ पर ठहर जाए,

एक ख्वाहिश कि उम्र बस यूँही गुज़र जाए।

कुछ हो ऐसा कि ज़रा जी बहले,

देर तक साथ हमारा रह ले।

हम अलग होने के बिल्कुल पहले,

धीमी बारिश में दूर तक टहले।

Friday, March 4, 2022

ग़ज़ल ४.३.२०२२

तुझसे यूँ मिलना मेरे यार, ज़रूरी था क्या?

तमाम उम्र इंतज़ार ज़रूरी था क्या?


कभी चुपचाप मैं रह जाता, कभी वो खामोश,

हर एक मुद्दे पे' तकरार ज़रूरी था क्या?


मेरी कहानी में वो नाम लाज़मी था मगर

उसको दुहराना बार-बार ज़रूरी था क्या?


आपने काम किया अपना, बहुत अच्छे, वाह!

हर एक बात का प्रचार ज़रूरी था क्या?


तेल साहब को लगाना था आदतन, फिर भी

तेल की धार पे' हो धार, ज़रूरी था क्या?


घर चलाने को, हाँ, बाज़ार चाहिए लेकिन

घर के घर बन गए बाज़ार, ज़रूरी था क्या?


फूल-कलियों पे' अपनी धौंस जमाने के लिए

तितलियों-भौरों का शिकार ज़रूरी था क्या?

Friday, June 11, 2021

ग़ज़ल ११ जून २०२१

 बातें इस तरह भी खराब न हो जाएं कहीं,

ये जो आँसू हैं फिर शराब न हो जाएं कहीं !

गलतियाँ करते हो तो गिनतियाँ भी करते रहो,

बढ़ते-बढ़ते ये बेहिसाब न हो जाएं कहीं !

बड़ी जतन से हकीकत किये हैं जो लम्हे,

डर यही है कि फिर से ख्वाब न हो जाएं कहीं !

दिल में लहरें जो उठीं हैं उन्हें सँभाल भी लो,

मनचलेपन में ये सैलाब न हो जाएं कहीं !

ज़रा सी उलझनें जंजाल बन गईं अक्सर,

ये सितारे भी आफताब न हो जाएं कहीं !

वो मेरे दर्द की देहरी को लाँघना चाहे,

कोशिशें उसकी कामयाब न हो जाएं कहीं !

छोटे बच्चे हैं, इन्हें मज़हबी फितूर न दो,

बड़े होते ही ये कसाब न हो जाएं कहीं !

भागे फिरते हैं खुशबुओं के सताए हुए हम,

ये चंद शेर भी गुलाब न हो जाएं कहीं !

-- आशुतोष द्विवेदी 

Thursday, January 28, 2021

ढोते ही रहते हैं संबंधों को

 ढोते ही रहते हैं संबंधों को,

आदत सी पड़ी हुई है कंधों को ।


गिर गिर कर सौ सौ बार उठे होंगे !

फिर फिर अपनों के हाथ लुटे होंगे !

ऊपर ऊपर झूठी मुसकान लिए,

भीतर भीतर हर साँस घुटे होंगे !

पर छिप न सकी भावों की लाचारी,

चेहरे पर झलकी मन की बीमारी;

फिर भी जाने कैसे हैं ये अपने?

दुख दिखा न आँखों वाले अंधों को ।१


जब जब संवेदन का तूफान बढा़,

बहला फुसला कर मन को किया कड़ा;

अपनेपन का दायित्व निभाने में,

अपने को चौराहों पर किया खड़ा ।

दुविधाओं से टकराते लहर लहर,

डूबते रहे उतराते रहे मगर;

फिर भी जाने क्यों बूझ नहीं पाए,

भावुकता के इन गोरख धंधों को ? २


नेकी करके दरिया में डाल दिया,

अपने अगणित सपनों को मार दिया;

उनको यह साधारण सी बात लगी,

जिन पर अपनी साँसों को वार दिया ।

खुद से ही रूठे, खुद से ही माने,

आया न कभी कोई जी बहलाने ;

फिर भी जाने किस लिए निभाते हैं

जीवन के अनचाहे अनुबंधों को ? ३

Wednesday, October 28, 2020


 ये राहों में बिखरी हुई पत्तियाँ,
ये शाखों से बिछड़ी हुई पत्तियाँ;
हमारी-तुम्हारी कथाएं हैं ये,
जगत की गहनतम व्यथाएं हैं ये,
विधाता की विधि-वर्जनाएं हैं ये,
हठी मृत्यु की गर्जनाएं हैं ये;
ये बिरहा में सूखी हुई पत्तियाँ,
ये पीड़ा से पीली हुई पत्तियां;
प्रणय की करुण गीतिकाएं हैं ये,
विखंडित ह्रदय की कलाएं हैं ये,
अधूरी रही कामनाएं हैं ये,
विवश चित्त की भावनाएं हैं ये;
ये मुरझाई, अकड़ी हुई पत्तियाँ,
ये बेठौर उड़ती हुई पत्तियाँ;
नियति की नियत क्रूरताएं हैं ये,
अचेतन हुईं चेतनाएं हैं ये,
विरति-भाव की प्रेरणाएं हैं ये,
समय की सहज देशनाएं हैं ये;
ये पेड़ों से गिरती हुई पत्तियाँ,
ये मिट्टी में मिलती हुई पत्तियाँ.......
-- आशुतोष द्विवेदी