Friday, April 28, 2017

ग़ज़ल

मौसम है दगाबाज़, कभी सर्द, कभी गर्म
जैसे तेरा मिजाज़, कभी सर्द, कभी गर्म

तासीर आज तक तेरी पकड़ी नहीं गयी,
कभी खुश, कभी नाराज़, कभी सर्द, कभी गर्म

अपनों ने सुनाई भी तो कुछ रंज नहीं है,
ये प्यार की आवाज़, कभी सर्द, कभी गर्म

ये चाल, ये चलन, कि कभी रात, कभी, दिन,
ये नाज़, ये अंदाज़, कभी सर्द, कभी गर्म

साँसों के हैं सुर-ताल, कभी मंद, कभी, तेज़,
है धड़कनों का साज़, कभी सर्द, कभी गर्म

नव्ज़ों में लहू बन के दौड़ने लगा है इश्क़,
अब जो भी हो इलाज़, कभी सर्द, कभी गर्म


Tuesday, April 11, 2017

मन में भावों की सरिता......

मन में भावों की सरिता जब अपनी गति से बलखाती है
मैं कविता करता नहीं और कविता खुद ही हो जाती है
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कविता मयंक की शीतलता, कविता है रवि का तेज प्रबल
कविता उपासना है, कविता माँ का स्नेहिल पावन आँचल
जलना कविता की शैली है, वह वीरों की प्रज्ज्वलित कथा
अधरों पर सजती मधुर हँसी, नयनों में तिरती मौन व्यथा
कविता स्वप्नों का मूर्त रूप, कविता यथार्थ का चित्रण है
कविता जागती का अलंकार, कविता समाज का दर्पण है
संतों की वाणी में, कविता बसती स्वराष्ट्र के वंदन में
कविता बसती कविता को जीने वालों के अभिनंदन में
मैं नहीं भगीरथ हो सकता, पर कविता पतित-पावनी है
धरती को निर्मल करने को बहती अनंत से आती है |
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मन के भीतर तक गहरे घावों को भर देती है कविता
सुंदर, मंगलमय भावों को गहरा कर देती है कविता
लेकर मशाल आंदोलन की आगे बढ़ जाती है कविता
मानवता की रक्षा में सूली पर चढ़ जाती है कविता
दो-चार बार क्या, बार-बार विषपान किया है कविता ने
फिर वर्तमान की ध्वनियों को विस्तार दिया है कविता ने
कविता आवाहन मंत्र बनी, कविता मन का विश्वास बनी
घुट-घुट कर मरते लोगों को नवजीवन देती श्वास बनी
मेरे अधरों की गति प्राकट्य नहीं है मेरी प्रतिभा का,
कविता तो स्वयं बैठ जिह्वा पर मीठे राग सुनाती है |
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जब-जब प्रकाश की माँग हुई तब दीपक कवि की देह बनी
जीवन बाती सा दहक उठा, कविता फिर हँसकर नेह बनी
कविता रातों को जागी है, दिनकर को प्रात जगाया है
जब-जब तम गहन हुआ तब-तब कविता ने दीप जलाया है
कविता संस्कृति का व्यक्त रूप, कविता परंपरा का वाहन
कविता राघव का धनुष-बाण, है मोहन का वंशी-वादन
सबके दुख में है आर्द्र हुई अपने दुख पर मुसकाई है
कितनी आँखों में झाँका तब जाकर कविता बन पाई
है इसे समझना कठिन बहुत, अंदाज़ अनोखा कविता का,
कविता खुद प्यासी रहकर भी औरों की प्यास बुझाती है
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देखो स्वराष्ट्र की रक्षा में होते कितने बलिदान अमर
देखो जौहर करने वाली बालाओं का अभिमान अमर
चकवा शशि की आशा में देखो अंगारों को खाता है
चातक का प्रेम निराला देखो अंगारों को खाता है
थी चहल-पहल जिसमें पहले, देखो इस सूने आँगन को
पतझड़ में मुरझाकर, बसंत में फिर से खिलते उपवन को
इनमें तलाश कविता की, निर्भर है दृष्टा के दर्शन पर
पत्थर भी चेतन हो उठते हैं करुणामय आवाहन पर
सौभाग्यवान हूँ मैं, दो बूँदें मिल जाती हैं मुझको भी,
जब हो कृपालु माँ वाणी भू पर काव्यामृत बरसाती है
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