जिन्हें सारे सयाने लोग मँझधारों में गिनते थे,
उन्हें नादान हम कश्ती की पतवारों में गिनते थे।
कई लोगों के सच इस दौर में खुलकर उभर आये,
जिन्हें हम एक ज़माने से समझदारों में गिनते थे।
जिन्होंने हम पे' बदनामी के पत्थर जम के बरसाए,
वो सब के सब वही थे, हम जिन्हें यारों में गिनते थे।
उन्हें ग़द्दारियों की बाअदब तालीम हासिल थी,
जिन्हें हम अपनी बस्ती के वफ़ादारों में गिनते थे।
कला, साहित्य और संगीत के काफी बड़े चेहरे,
बिके थे ज़्यादातर, हम जिनको फ़नकारों में गिनते थे।
कई सालों से कर के नौकरी औकात पर आए,
कोई था दौर, जब हम खुद को खुद्दारों में गिनते थे।
उन्हें नादान हम कश्ती की पतवारों में गिनते थे।
कई लोगों के सच इस दौर में खुलकर उभर आये,
जिन्हें हम एक ज़माने से समझदारों में गिनते थे।
जिन्होंने हम पे' बदनामी के पत्थर जम के बरसाए,
वो सब के सब वही थे, हम जिन्हें यारों में गिनते थे।
उन्हें ग़द्दारियों की बाअदब तालीम हासिल थी,
जिन्हें हम अपनी बस्ती के वफ़ादारों में गिनते थे।
कला, साहित्य और संगीत के काफी बड़े चेहरे,
बिके थे ज़्यादातर, हम जिनको फ़नकारों में गिनते थे।
कई सालों से कर के नौकरी औकात पर आए,
कोई था दौर, जब हम खुद को खुद्दारों में गिनते थे।
Ashu super thought👍👍
ReplyDeleteकड़वी बातें कितनी मीठी तरज़ के साथ गज़ल में ढाल दी। यही आज के कृत्रिम युग की सच्चाई है। हमेशा की तरह बहुत ही ऊंचे दर्जे की ग़ज़ल है। हमारे मन की बात भी कह दी आप ने द्विवेदी जी।
ReplyDeleteमैं आदरणीय नदीम अहमद खान सर के प्रति कृतज्ञ हूँ जो उन्होंने मुझे इस ब्लॉग से जुड़ने की सलाह दी।
ReplyDeleteआदरणीय श्री द्विवेदी जी का ब्लॉग और उस पर उपलब्ध गज़ल आत्मीयता लिये हुए है। लगता है किसी ने अपनी बातों को शब्द दे दिए हों। विकास मिश्र
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है
ReplyDeleteआप सभी को अनेक धन्यवाद
ReplyDelete