Monday, August 16, 2010

.....प्यास तो है

बहुत गहरे में कहीं तुमसे मिलन की आस तो है |
अधर गर्वीले नकारें लाख फिर भी प्यास तो है ||
(१)
शून्यता तो है कहीं जो बिन तुम्हारे भर न पाती,
इक चुभन भी है कि जो पीछे पड़ी दिन-रात मेरे |
दो नयन जादू भरे इस भांति भीतर बस गए हैं,
भूल पाना अब जिन्हें, बस कि नहीं है बात मेरे |
सौ बहाने मैं बना लूँ, झूम लूँ या गुनगुना लूँ ;
चित्त को अपनी अधूरी नियति का आभास तो है |
(२)
भूल जाऊँ किस तरह बेबाक होठों की शरारत ?
सेब जैसे रंग वाले गाल कैसे भूल जाऊँ ?
तारकों की पंक्तियों को मात करती मुस्कुराहट,
और चंदा को लजाता भाल कैसे भूल जाऊँ ?
आवरण मैं लाख डालूँ, स्वयं को खुद से छिपा लूँ;
पर जहां 'मैं' तक नहीं वह भी तुम्हारा वास तो है |
(३)
महकता आँचल कि जिसमें खिल उठे थे स्वप्न मेरे,
बिखरती अलकें कि जिनमें खो गयी मेरी जवानी |
थिरकते सब अंग, पुलकित रोम, गदरायी उमर वो;
बहकती जिनमें दिवानी हो गयी मेरी जवानी |
यम-नियम के ढोंग सारे, हर जतन के बाद हारे;
और मेरी इस पराजय का तुम्हें अहसास तो है |
(४)
देह की मधु-गंध नंदन को अकिंचन सिद्ध करती,
स्नेह-भीना स्पर्श मेरे प्राण में पीयूष भरता |
वत्सला चितवन सिखाती अप्सराओं को समर्पण,
और आलिंगन तुम्हारा मृत्यु का उपहास करता |
वे मधुर सुधियाँ बुलातीं, विरह की दूरी घटातीं;
गहनतम अँधियार में यह झलकता विश्वास तो है |

बहुत गहरे में कहीं तुमसे मिलन की आस तो है |
अधर गर्वीले नकारें लाख फिर भी प्यास तो है ||

हाँ! मैं जीवित हूँ

बालकनी पर शाम उतरती है तो मैं फिर जी उठता हूँ |
शाम पांच चालीस होते ही ऑफिस के उस मुर्दा घर से,
बीस-इकीस लाशों को लेकर,
एम्बुलेंस के जैसी छोटी बस (जिसको 'चार्टर्ड' कहते हैं)
आ जाती है छः चालीस तक,
और छोड़ जाती है सब लाशों को अपने-अपने घर तक |
घर, जिनमे 'घर' का प्रतिशत कितना है - यह मालूम नहीं है |
हाँ, दीवारें हैं, छत है और छोटी बालकनी भी |

मरे हुए इन लोगों में ही एक लाश मेरी भी है जो,
लिफ्ट पकड़कर चढ़ जाती है सबसे ऊपर की मंजिल पर |
चारदिवारी घिरी हुई है, छत भी है और बालकनी भी |
'घर' का प्रतिशत कितना है? शायद कुछ भी तो नहीं; और क्या?
दिन भर के उन कसे हुए कपड़ों के बंधन ढीले करके,
बालकनी पर आ जाता हूँ;
और बुझी आँखों से देखा करता हूँ ढलते सूरज को |

सिन्दूरी वह शाम अचानक जादू जैसे कर देती है;
भीतर बिखरे अंधियारे पर एक उजाला छा जाता है;
जाते-जाते सूरज कोई नयी प्रेरणा दे जाता है;
कुछ आशाएं भर जाता है, कुछ विश्वास बंधा जाता है;
इस उमंग में पागल होकर धड़कन थिरक-थिरक उठती है;
रोम-रोम अंतर-वीणा की झंकृति से पुलकित होता है;
और श्वास जो अब तक ठहरी थी, फिर से चलने लगती है;
कहीं दूर, गहरे भावों के स्वर गुंजित होने लगते हैं --
"हाँ! मैं जीवित हूँ, मैं मरा नहीं हूँ;  हाँ! हाँ! मैं जीवित हूँ |"
ग़ज़ल
(१)
भाषा में जो भाव बँधे, उनको सारी दुनिया समझे |
अंतरतम कि मूक साधना कोई सरल हिया समझे |

रास रचाने रात गए किस पागलपन में पाँव बढे?
इसे न मैं भी जानूं, केवल मेरा सांवरिया समझे |

उसके ही स्वर जग जाएँ तो फिर घर-घर हो रामायण,
एक व्यक्ति ऐसा जो सारे जग को राम-सिया समझे |

अँधियारे का एक लक्ष्य, बस उजियारे को ग्रस लेना,
इसी चुनौती को नन्हा सा जलता हुआ दिया समझे | 

जिस दिन यह मन दास हुआ, उस दिन सारा स्वामित्व मिला,
रहे भिखारी तब तक, जब तक अपने को मुखिया समझे |

कवि का चित्त कि जो भटकन में ही आश्रय को खोज रहा,
और किसे यह चाह कि वो चातक का पिया-पिया समझे |

जाती है वह अमियमयी जिस ओर स्वर्ग बन जाता है,
इस महिमा को ‘आशुतोष’ कि छोटी सी कुटिया समझे |

(२)

यहाँ खामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है ?
मेरी आँखों में तेरी बेगुनाही कौन पढ़ता है ?

नुमाइश में लगी चीज़ों को मैला कर रहे हैं सब,
लिखी तख्तों पे - "छूने की मनाही" कौन पढ़ता है ?

जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो,
वहाँ बेचैन रातों की सियाही कौन पढ़ता है ?

ये वो महफिल है, जिसमें शोर करने की रवायत है,
दबे लब पर हमारी वाह-वाही कौन पढ़ता है ?

वो बाहर देखते हैं, औ' हमें मुफलिस समझते हैं,
खुदी जज्बों पे - अपनी बादशाही कौन पढ़ता है ?

जो खुशकिस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं,
लुटे आँगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है ?