Wednesday, February 15, 2017

आओ हे ऋतुराज


आओ हे ऋतुराज, तुम्हारा स्वागत है,
बहुत दिनों के बाद सही, तुम आए तो |
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बिछड़ गए पेड़ों से, लेकिन रो न सके,
मुरझाए पत्ते इतने मजबूर हुए;
रंग, रूप, रस और गंध के चित्रों से,
नयन हमारे जैसे कोसों दूर हुए |
पतझड़ जो हरियाली लेकर चला गया,
              उपवन तक फिर से लौटा कर लाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
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उजड़े मौसम का हर पल युग जैसा था,
मौन अधर प्यासे, उदास, अकुलाए थे;
सूनी डालें राह निहारा करती थीं,
माली भी सूनेपन से घबराए थे |
लेकिन अंतर में अब कोई क्लेश नहीं,
              आज सुमन फिर आँगन में मुसकाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

मंजरियों की सुरभि हवाओं में फैली,
कलियों ने खिलकर सादर सत्कार किया;
रूप सृष्टि का आज निखर आया ऐसे,
जैसे कवि ने कविता का शृंगार किया |
आज तितलियों के पंखों ने गति पायी,
                चलो, भ्रमर फिर मस्ती में बौराए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

 नयनों में, अधरों पर खुशियाँ छा जातीं,
राग-रंग फिर से यौवन को पा जाते;
हृदयों पर संदेश तुम्हारी खातिर था,
अच्छा होता जितनी जल्दी आ जाते |
बस मेरी बगिया की कोई बात नहीं,
                 कहीं और ही सही, कोकिला गाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***


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