Monday, February 27, 2017

दिल (एक नज़्म ग़ालिब के नाम)


दिल मेरा कुछ दिनों से रूठा है
मुझसे ऐसे कि बोलता ही नहीं
मेरे कुछ राज़ छिपाए बैठा
जिनकी पर्तों को खोलता ही नहीं
मेरी यादों के बंद डिब्बे में,
मेरे बचपन के चन्द कैसेट हैं
एक सीडी भी है जवानी की
लेकिनइनको मैं चलाऊँ कैसे
वीसीपीटीवी औ सीडी प्लेयर
सब मशीनें हैं दिल के कमरे में
’ वो कमरा है बंद मेरे लिए 
कुछ दिनों पहले नहीं था ऐसा
वो दिल का कमरा जैसे मेरा था
बैठकर जिसमें काफ़ी देर तलक
हाथ में वक़्त का रिमोट लिए
वीडिओ में पुरानी यादों के
ढूँढता खोये हुए ख़ुद को मैं
सिलसिला टूट गया है तब से
दिल मेरा रूठ गया है जब से 
क्यों हुआकैसे हुआक्या मालूम ?
सोचता हूँ तो सिर्फ उलझन ही
हाथ आती है और कुछ भी नहीं
बुझा-बुझा सा है हर एक ख़याल
उठता रह-रह के यही एक सवाल 
दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है?
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?”

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