Saturday, June 28, 2025

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(1)

ऐसा लगता है, दीवारें कस लेंगी,

पूरा का पूरा निचोड़ कर रख देंगी।

अंतरतम की ईख पेर ली जायेगी,

भीतर खोई ही खोई बच पायेगी।

घड़ी-घड़ी यह डर बढ़ता ही जाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(2)

ऐसा लगता है, बस बाहर भाग चलें,

जीवन के आश्वस्त क्षणों को त्याग चलें।

और कहीं फिर इतनी दूर निकल जायें,

जहाँ न कोई, कभी, कहीं घेरा पायें।

बार-बार बस यह विचार तड़पाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(3)

केवल दीवारें ही नहीं मुसीबत हैं,

हर घेरे से प्राण हो रहे आहत हैं।

बिस्तर की पर्तें, कपड़ों के आडंबर, 

माला और जनेऊ की उलझन तन पर।

हर बंधन तोड़ें, यूँ मन मचलाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(4)

घबराहट हर संवेदन पर भारी है,

क्या यह कोई अंतस की बीमारी है?

या फिर, अपना 'होना' खुद पर हावी है?

क्या समझें? यह मन ऐसा मायावी है!

सीधी चलती राहों में भरमाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?


आशुतोष द्विवेदी

29/06/2025

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