लू लगी सी पस्त हैं साँसें बेचारी,
जेठ की गरमी हुईं यादें तुम्हारी।
यूँ तो बिछड़े हो गये हमको ज़माने,
फिर भी अपने बीच आखिर क्या है जारी?
सूद इतना है तुम्हारी चाहतों का,
इस जनम में चुक न पायेगी उधारी!
ढूँढ लेती हैं, कहीं छिप जाये जाकर,
दिल हिरन और इश्क की नज़रें शिकारी।
शायरी के हम जमूरे हैं, यूँ समझो,
है कोई अनजान सा अपना मदारी।
जैसे-जैसे उम्र चढ़ती जा रही है,
और बढ़ती जा रही है बेकरारी।
है पड़ी जनतंत्र पर हर वक्त भारी,
लीडरों की, अफसरों की रंगदारी।
आशुतोष द्विवेदी
13-06-2025
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