रात है, काला समंदर, दूर तक अँधियार है,
इस तिमिर में डूबता व्यक्तित्व बारंबार है।
कल्पनाएं सब शिथिल, संवेदनाएं सुप्त हैं,गीत में फिर प्रीत की निर्बाध मादकता मिला दो | शब्द की तृष्णा बुझा दो, भाव की मदिरा पिला दो |
रात है, काला समंदर, दूर तक अँधियार है,
इस तिमिर में डूबता व्यक्तित्व बारंबार है।
कल्पनाएं सब शिथिल, संवेदनाएं सुप्त हैं,चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?
(1)
ऐसा लगता है, दीवारें कस लेंगी,
पूरा का पूरा निचोड़ कर रख देंगी।
अंतरतम की ईख पेर ली जायेगी,
भीतर खोई ही खोई बच पायेगी।
घड़ी-घड़ी यह डर बढ़ता ही जाता है।
चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?
(2)
ऐसा लगता है, बस बाहर भाग चलें,
जीवन के आश्वस्त क्षणों को त्याग चलें।
और कहीं फिर इतनी दूर निकल जायें,
जहाँ न कोई, कभी, कहीं घेरा पायें।
बार-बार बस यह विचार तड़पाता है।
चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?
(3)
केवल दीवारें ही नहीं मुसीबत हैं,
हर घेरे से प्राण हो रहे आहत हैं।
बिस्तर की पर्तें, कपड़ों के आडंबर,
माला और जनेऊ की उलझन तन पर।
हर बंधन तोड़ें, यूँ मन मचलाता है।
चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?
(4)
घबराहट हर संवेदन पर भारी है,
क्या यह कोई अंतस की बीमारी है?
या फिर, अपना 'होना' खुद पर हावी है?
क्या समझें? यह मन ऐसा मायावी है!
सीधी चलती राहों में भरमाता है।
चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?
आशुतोष द्विवेदी
29/06/2025
आजकल कोई ग़म नहीं है, भई!
ये ही सबसे बड़ी खुशी है, भई!लू लगी सी पस्त हैं साँसें बेचारी,
जेठ की गरमी हुईं यादें तुम्हारी।
यूँ तो बिछड़े हो गये हमको ज़माने,
फिर भी अपने बीच आखिर क्या है जारी?
सूद इतना है तुम्हारी चाहतों का,
इस जनम में चुक न पायेगी उधारी!
ढूँढ लेती हैं, कहीं छिप जाये जाकर,
दिल हिरन और इश्क की नज़रें शिकारी।
शायरी के हम जमूरे हैं, यूँ समझो,
है कोई अनजान सा अपना मदारी।
जैसे-जैसे उम्र चढ़ती जा रही है,
और बढ़ती जा रही है बेकरारी।
है पड़ी जनतंत्र पर हर वक्त भारी,
लीडरों की, अफसरों की रंगदारी।
आशुतोष द्विवेदी
13-06-2025
आओ विकसित देश बनाएं कागज़ पर,
छल-छद्मों की गणित चलाएं कागज़ पर।
हम, तुम, वो, सब कागज़ के हैं शेर, मियाँ!
कस के चलो दहाड़ लगाएं कागज़ पर।
क्या सच है, क्या झूठ? हमारी कलम गढ़े,
ऊपर, नीचे, दाएं, बाएं, कागज़ पर।
जो स्नातक में भी उत्तीर्ण न हो पाए,
आओ, उनको शोध कराएं कागज़ पर।
जो आँखों से अंतर्मन तक नीरस हैं,
उनने लिख मारी कविताएं, कागज़ पर।
आँखों-देखी को झुठलाएं कागज़ पर,
मनचाही तस्वीर सजाएं कागज़ पर।
- आशुतोष द्विवेदी
हम अलग होने के बिल्कुल पहले,
धीमी बारिश में दूर तक टहले।
ज़मीन ताकते, हाथों में कस के हाथ लिए,
महकी यादों के कारवाँ दिलों में साथ लिए।
काँपते होठ, ज़ुबाँ ठहरी, थकी-हारी नज़र,
अपने हिस्से के शब्द खोजते अपने भीतर।
तरसते कान कि एक-दूजे की आवाज़ सुनें,
उदास खामुशी में लिपटा कोई राज़ सुनें।
आने वाले पलों के दर्द टटोलें, सोचा,
दूर होने के दुख में फूट के रोलें, सोचा।
ये भी सोचा कि जो तनहाई आने वाली है,
वो आँसुओं की घटा साथ लाने वाली है।
जब वो बरसेगी अकेले में, भला क्या होगा?
तन तो भीगेगा मगर मन सुलग रहा होगा!
वो आग कोई भी बारिश बुझा न पाएगी,
हर एक धार जलन और बढ़ा जाएगी।
इसी तरह के खयालों से जूझते दोनों,
एक-दूजे के तड़पने को बूझते दोनों,
फिर भी चुप हैं ये सोच के कि क्या कहें आखिर?
जब बिछड़ना है तो चुप- चाप विदाई लें फिर!
हाँ, मगर बेशुमार बतकही का मन भी है,
शोर करती हुई भीतर कोई धड़कन भी है!
इसी उधेड़बुन के साथ हर कदम रखते,
मुस्कुराते हुए आपस का हम भरम रखते।
काश! ये वक्त इसी मोड़ पर ठहर जाए,
एक ख्वाहिश कि उम्र बस यूँही गुज़र जाए।
कुछ हो ऐसा कि ज़रा जी बहले,
देर तक साथ हमारा रह ले।
हम अलग होने के बिल्कुल पहले,
धीमी बारिश में दूर तक टहले।