Friday, December 12, 2025

ग़ज़ल

मामला यूॅं भी न बिगड़ा होता;

जो जहाॅं था, वहीं रहा होता।

फैसले ठीक ठाक होते, अगर
सलाह मशविरा किया होता

मुस्कुराहट का सिलसिला मेरी जाॅं,
काश, कुछ देर तक चला होता!

मुकाबले की बात तब रहती,
अपने जैसों से सामना होता।

सोच, किस तरह गुज़रती तुझ पे',
तू मिलने आता, और मैं ना होता!

अपने मेयार से गिरा होता,
मैं भी जाने कहां कहां होता!

Thursday, December 11, 2025

ग़ज़ल

ये भीड़-भाड़, ये चहल-पहल भला क्यों हैं?

शाही अंदाज़ में हर रास्ता बदला क्यों है?

जो गरीबों की मसीहाई करने आया था,

वो अमीरों के रंग-ढंग में ढला क्यों है?

हर एक ज़ुबान पे' ताज़ा सा आबला क्यों है?

जलन है कैसी? हर एक दिल जला जला क्यों है?

खैर ख्वाही किये हुए महीनों बीत गए!

पूछते हो दिलों में इतना फासला क्यों है?

कितना आसान था जो दिल में है उसे कहना!

फिर ये सच बोलना पेंचीदा मामला क्यों है?

मिलन की शाम भी नखरों के बाद आई है!

आज सूरज भी इतनी देर से ढला क्यों हैं!!

ग़ज़ल

देर हो जाएगी जाने में मगर चलते हैं,

बहुत भटक चुके हैं दोस्त, कि घर चलते हैं।

एक मुद्दत से यही हादसा गुज़रा हमपे' - 

पाँव ठहरे हुए हैं और सफर चलते हैं।

जब, जहाँ हमको था जाना वहाँ चले तुम भी,

अब जिधर तुमको तमन्ना है, उधर चलते हैं।

ये टेढ़े रास्ते अब खौफनाक लगते हैं,

कोई सीधी सी चले ऐसी डगर चलते हैं।

शाही राहों पे' हुआ करती है मुर्दों की परेड,

अनगिनत जिस्म कटाये हुए सर चलते हैं।

Tuesday, November 11, 2025

अँधियार है

 रात है, काला समंदर, दूर तक अँधियार है,

इस तिमिर में डूबता व्यक्तित्व बारंबार है।

कल्पनाएं सब शिथिल, संवेदनाएं सुप्त हैं,

चेतना की मंत्रणाएं गुप्त से अतिगुप्त हैं।

बोझ एकाकी पलों का आयु पर भारी हुआ,

निर्दयी घबराहटों का दौर फिर जारी हुआ।

शोर सागर की तरंगों का मुखर होने लगा,

भीत सन्नाटा अचानक भयंकर होने लगा।

आँख कुछ तो देखती है, क्या, मगर अंजान है!

कान जो कुछ सुन रहे हैं, वह निरा अनुमान है।

संशयों की एक सेना सी खड़ी है सामने,

घेर रखा बुद्धि-मन के आपसी संग्राम ने।

जाल भ्रम का हर नए पल और भी होता कसा,

चित्त आकर फॅंस गया है व्यूह में, सौभद्र सा।

हाॅं, सही है, भाग जाने के कई अवसर मिले,

पर न साहस हो सका, हर बार इतने डर मिले।

फिर, यहाॅं, सागर किनारे था कोई ठहराव भी,

इसलिए उपजा हृदय में कुछ विचित्र लगाव भी।

यह लगाव, खिंचाव यह, जन्मों पुराना लग रहा,

भटकनों का बस यही अंतिम ठिकाना लग रहा।

लग रहा संघर्ष ही यह शांति लेकर आएगा,

लग रहा यह द्वंद्व ही निर्द्वंद्व तक पहुंचाएगा।

लग रहा जैसे कि जीवन वस्तुतः  अँधियार है,

या कि यह तम ही सकल अस्तित्व का आधार है।

Wednesday, September 10, 2025

ग़ज़ल

मुस्कुराती हुई कहानियाॅं लिखी जाएं
इस बहाने से चंद सिसकियाॅं लिखी जाएं

भूली बिसरी हुई यादों का ज़िक्र हो फिर से

फिर से घबराई हुई हिचकियाॅं लिखी जाएं

अब क्या तारीख पर बहस का यही है हासिल?
अपने पुरखों के नाम गालियाॅं लिखी जाएं?

अक्ल थक हार के बिखरी है दिल के पन्ने पर
क्यों न इस लम्हे में नादानियाॅं लिखी जाएं!

जबकि नज़दीकियों की नज़्म नागवार रही
अबकि ग़ज़लों में फिर से दूरियाॅं लिखी जाएं

नाज़-नखरों के तरानों से भर चुका है जी
सीधी-सादी सी चंद लड़कियाॅं लिखी जाएं

साइंस पढ़-पढ़ के तो मुरझाए फूल से बच्चे
कोर्स में इनके ज़रा तितलियाॅं लिखी जाएं

अपनी तारीफ की जब कॉपियाॅं लिखी जाएं
हाशिए में ही सही गलतियाॅं लिखी जाएं

Saturday, June 28, 2025

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(1)

ऐसा लगता है, दीवारें कस लेंगी,

पूरा का पूरा निचोड़ कर रख देंगी।

अंतरतम की ईख पेर ली जायेगी,

भीतर खोई ही खोई बच पायेगी।

घड़ी-घड़ी यह डर बढ़ता ही जाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(2)

ऐसा लगता है, बस बाहर भाग चलें,

जीवन के आश्वस्त क्षणों को त्याग चलें।

और कहीं फिर इतनी दूर निकल जायें,

जहाँ न कोई, कभी, कहीं घेरा पायें।

बार-बार बस यह विचार तड़पाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(3)

केवल दीवारें ही नहीं मुसीबत हैं,

हर घेरे से प्राण हो रहे आहत हैं।

बिस्तर की पर्तें, कपड़ों के आडंबर, 

माला और जनेऊ की उलझन तन पर।

हर बंधन तोड़ें, यूँ मन मचलाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(4)

घबराहट हर संवेदन पर भारी है,

क्या यह कोई अंतस की बीमारी है?

या फिर, अपना 'होना' खुद पर हावी है?

क्या समझें? यह मन ऐसा मायावी है!

सीधी चलती राहों में भरमाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?


आशुतोष द्विवेदी

29/06/2025

Friday, June 13, 2025

है, भई!

आजकल कोई ग़म नहीं है, भई!

ये ही सबसे बड़ी खुशी है, भई!

मौत से पहले ज़िंदग़ी ही तो थी?
फिर इसके बाद भी वही है, भई!

बेझिझक पाँव पसारे जायें,
दिल की चादर बहुत बड़ी है, भई!

माँगने का शऊर भी न रहा,
ऐसी गैरत गले पड़ी है, भई!

उसके एहसान याद कर करके,
नज़र झुकी तो फिर झुकी है, भई!

कौन है हमसे खुशनसीब भला?
उसकी संगत हमें मिली है, भई!

मातमपुरसी बहुत हुई है, भई!
फिर भी क्यों आँख शबनमी है, भई!

आशुतोष द्विवेदी
14-06-2025