Tuesday, November 11, 2025

अँधियार है

 रात है, काला समंदर, दूर तक अँधियार है,

इस तिमिर में डूबता व्यक्तित्व बारंबार है।

कल्पनाएं सब शिथिल, संवेदनाएं सुप्त हैं,

चेतना की मंत्रणाएं गुप्त से अतिगुप्त हैं।

बोझ एकाकी पलों का आयु पर भारी हुआ,

निर्दयी घबराहटों का दौर फिर जारी हुआ।

शोर सागर की तरंगों का मुखर होने लगा,

भीत सन्नाटा अचानक भयंकर होने लगा।

आँख कुछ तो देखती है, क्या, मगर अंजान है!

कान जो कुछ सुन रहे हैं, वह निरा अनुमान है।

संशयों की एक सेना सी खड़ी है सामने,

घेर रखा बुद्धि-मन के आपसी संग्राम ने।

जाल भ्रम का हर नए पल और भी होता कसा,

चित्त आकर फॅंस गया है व्यूह में, सौभद्र सा।

हाॅं, सही है, भाग जाने के कई अवसर मिले,

पर न साहस हो सका, हर बार इतने डर मिले।

फिर, यहाॅं, सागर किनारे था कोई ठहराव भी,

इसलिए उपजा हृदय में कुछ विचित्र लगाव भी।

यह लगाव, खिंचाव यह, जन्मों पुराना लग रहा,

भटकनों का बस यही अंतिम ठिकाना लग रहा।

लग रहा संघर्ष ही यह शांति लेकर आएगा,

लग रहा यह द्वंद्व ही निर्द्वंद्व तक पहुंचाएगा।

लग रहा जैसे कि जीवन वस्तुतः  अँधियार है,

या कि यह तम ही सकल अस्तित्व का आधार है।

Wednesday, September 10, 2025

ग़ज़ल

मुस्कुराती हुई कहानियाॅं लिखी जाएं
इस बहाने से चंद सिसकियाॅं लिखी जाएं

भूली बिसरी हुई यादों का ज़िक्र हो फिर से

फिर से घबराई हुई हिचकियाॅं लिखी जाएं

अब क्या तारीख पर बहस का यही है हासिल?
अपने पुरखों के नाम गालियाॅं लिखी जाएं?

अक्ल थक हार के बिखरी है दिल के पन्ने पर
क्यों न इस लम्हे में नादानियाॅं लिखी जाएं!

जबकि नज़दीकियों की नज़्म नागवार रही
अबकि ग़ज़लों में फिर से दूरियाॅं लिखी जाएं

नाज़-नखरों के तरानों से भर चुका है जी
सीधी-सादी सी चंद लड़कियाॅं लिखी जाएं

साइंस पढ़-पढ़ के तो मुरझाए फूल से बच्चे
कोर्स में इनके ज़रा तितलियाॅं लिखी जाएं

अपनी तारीफ की जब कॉपियाॅं लिखी जाएं
हाशिए में ही सही गलतियाॅं लिखी जाएं

Saturday, June 28, 2025

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(1)

ऐसा लगता है, दीवारें कस लेंगी,

पूरा का पूरा निचोड़ कर रख देंगी।

अंतरतम की ईख पेर ली जायेगी,

भीतर खोई ही खोई बच पायेगी।

घड़ी-घड़ी यह डर बढ़ता ही जाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(2)

ऐसा लगता है, बस बाहर भाग चलें,

जीवन के आश्वस्त क्षणों को त्याग चलें।

और कहीं फिर इतनी दूर निकल जायें,

जहाँ न कोई, कभी, कहीं घेरा पायें।

बार-बार बस यह विचार तड़पाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(3)

केवल दीवारें ही नहीं मुसीबत हैं,

हर घेरे से प्राण हो रहे आहत हैं।

बिस्तर की पर्तें, कपड़ों के आडंबर, 

माला और जनेऊ की उलझन तन पर।

हर बंधन तोड़ें, यूँ मन मचलाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?

(4)

घबराहट हर संवेदन पर भारी है,

क्या यह कोई अंतस की बीमारी है?

या फिर, अपना 'होना' खुद पर हावी है?

क्या समझें? यह मन ऐसा मायावी है!

सीधी चलती राहों में भरमाता है।

चारदिवारी में क्यों जी घबराता है?


आशुतोष द्विवेदी

29/06/2025

Friday, June 13, 2025

है, भई!

आजकल कोई ग़म नहीं है, भई!

ये ही सबसे बड़ी खुशी है, भई!

मौत से पहले ज़िंदग़ी ही तो थी?
फिर इसके बाद भी वही है, भई!

बेझिझक पाँव पसारे जायें,
दिल की चादर बहुत बड़ी है, भई!

माँगने का शऊर भी न रहा,
ऐसी गैरत गले पड़ी है, भई!

उसके एहसान याद कर करके,
नज़र झुकी तो फिर झुकी है, भई!

कौन है हमसे खुशनसीब भला?
उसकी संगत हमें मिली है, भई!

मातमपुरसी बहुत हुई है, भई!
फिर भी क्यों आँख शबनमी है, भई!

आशुतोष द्विवेदी
14-06-2025

लू लगी सी

लू लगी सी पस्त हैं साँसें बेचारी,

जेठ की गरमी हुईं यादें तुम्हारी।


यूँ तो बिछड़े हो गये हमको ज़माने,

फिर भी अपने बीच आखिर क्या है जारी?


सूद इतना है तुम्हारी चाहतों का,

इस जनम में चुक न पायेगी उधारी!


ढूँढ लेती हैं, कहीं छिप जाये जाकर, 

दिल हिरन और इश्क की नज़रें शिकारी।


शायरी के हम जमूरे हैं, यूँ समझो,

है कोई अनजान सा अपना मदारी।


जैसे-जैसे उम्र चढ़ती जा रही है,

और बढ़ती जा रही है बेकरारी।


है पड़ी जनतंत्र पर हर वक्त भारी,

लीडरों की, अफसरों की रंगदारी।


आशुतोष द्विवेदी

13-06-2025

Sunday, March 5, 2023

कागज़ पर

आओ विकसित देश बनाएं कागज़ पर,

छल-छद्मों की गणित चलाएं कागज़ पर।


हम, तुम, वो, सब कागज़ के हैं शेर, मियाँ!

कस के चलो दहाड़ लगाएं कागज़ पर।


क्या सच है, क्या झूठ? हमारी कलम गढ़े,

ऊपर, नीचे, दाएं, बाएं, कागज़ पर।


जो स्नातक में भी उत्तीर्ण न हो पाए,

आओ, उनको शोध कराएं कागज़ पर।


जो आँखों से अंतर्मन तक नीरस हैं,

उनने लिख मारी कविताएं, कागज़ पर।


आँखों-देखी को झुठलाएं कागज़ पर,

मनचाही तस्वीर सजाएं कागज़ पर।


- आशुतोष द्विवेदी

Friday, December 30, 2022

धीमी बारिश में

हम अलग होने के बिल्कुल पहले,

धीमी बारिश में दूर तक टहले।

ज़मीन ताकते, हाथों में कस के हाथ लिए,

महकी यादों के कारवाँ दिलों में साथ लिए।

काँपते होठ, ज़ुबाँ ठहरी, थकी-हारी नज़र,

अपने हिस्से के शब्द खोजते अपने भीतर।

तरसते कान कि एक-दूजे की आवाज़ सुनें,

उदास खामुशी में लिपटा कोई राज़ सुनें।

आने वाले पलों के दर्द टटोलें, सोचा,

दूर होने के दुख में फूट के रोलें, सोचा।

ये भी सोचा कि जो तनहाई आने वाली है,

वो आँसुओं की घटा साथ लाने वाली है।

जब वो बरसेगी अकेले में, भला क्या होगा?

तन तो भीगेगा मगर मन सुलग रहा होगा!

वो आग कोई भी बारिश बुझा न पाएगी,

हर एक धार जलन और बढ़ा जाएगी।

इसी तरह के खयालों से जूझते दोनों,

एक-दूजे के तड़पने को बूझते दोनों,

फिर भी चुप हैं ये सोच के कि क्या कहें आखिर?

जब बिछड़ना है तो चुप- चाप विदाई लें फिर!

हाँ, मगर बेशुमार बतकही का मन भी है,

शोर करती हुई भीतर कोई धड़कन भी है!

इसी उधेड़बुन के साथ हर कदम रखते,

मुस्कुराते हुए आपस का हम भरम रखते।

काश! ये वक्त इसी मोड़ पर ठहर जाए,

एक ख्वाहिश कि उम्र बस यूँही गुज़र जाए।

कुछ हो ऐसा कि ज़रा जी बहले,

देर तक साथ हमारा रह ले।

हम अलग होने के बिल्कुल पहले,

धीमी बारिश में दूर तक टहले।