Thursday, January 28, 2021

ढोते ही रहते हैं संबंधों को

 ढोते ही रहते हैं संबंधों को,

आदत सी पड़ी हुई है कंधों को ।


गिर गिर कर सौ सौ बार उठे होंगे !

फिर फिर अपनों के हाथ लुटे होंगे !

ऊपर ऊपर झूठी मुसकान लिए,

भीतर भीतर हर साँस घुटे होंगे !

पर छिप न सकी भावों की लाचारी,

चेहरे पर झलकी मन की बीमारी;

फिर भी जाने कैसे हैं ये अपने?

दुख दिखा न आँखों वाले अंधों को ।१


जब जब संवेदन का तूफान बढा़,

बहला फुसला कर मन को किया कड़ा;

अपनेपन का दायित्व निभाने में,

अपने को चौराहों पर किया खड़ा ।

दुविधाओं से टकराते लहर लहर,

डूबते रहे उतराते रहे मगर;

फिर भी जाने क्यों बूझ नहीं पाए,

भावुकता के इन गोरख धंधों को ? २


नेकी करके दरिया में डाल दिया,

अपने अगणित सपनों को मार दिया;

उनको यह साधारण सी बात लगी,

जिन पर अपनी साँसों को वार दिया ।

खुद से ही रूठे, खुद से ही माने,

आया न कभी कोई जी बहलाने ;

फिर भी जाने किस लिए निभाते हैं

जीवन के अनचाहे अनुबंधों को ? ३

2 comments:

  1. बहुत खूब द्विवेदी जी। जीवन के किस यथार्थ को व्यक्त कर दिया! हमारे मन की बाते कह दी है आपने।

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  2. कविता जब पढ़ने वाले को अपनी कहानी लगने लगे तो कवि की जीत समझिए...
    ये कविता कुछ ऐसी ही है

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