Monday, February 27, 2017

दिल (एक नज़्म ग़ालिब के नाम)


दिल मेरा कुछ दिनों से रूठा है
मुझसे ऐसे कि बोलता ही नहीं
मेरे कुछ राज़ छिपाए बैठा
जिनकी पर्तों को खोलता ही नहीं
मेरी यादों के बंद डिब्बे में,
मेरे बचपन के चन्द कैसेट हैं
एक सीडी भी है जवानी की
लेकिनइनको मैं चलाऊँ कैसे
वीसीपीटीवी औ सीडी प्लेयर
सब मशीनें हैं दिल के कमरे में
’ वो कमरा है बंद मेरे लिए 
कुछ दिनों पहले नहीं था ऐसा
वो दिल का कमरा जैसे मेरा था
बैठकर जिसमें काफ़ी देर तलक
हाथ में वक़्त का रिमोट लिए
वीडिओ में पुरानी यादों के
ढूँढता खोये हुए ख़ुद को मैं
सिलसिला टूट गया है तब से
दिल मेरा रूठ गया है जब से 
क्यों हुआकैसे हुआक्या मालूम ?
सोचता हूँ तो सिर्फ उलझन ही
हाथ आती है और कुछ भी नहीं
बुझा-बुझा सा है हर एक ख़याल
उठता रह-रह के यही एक सवाल 
दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है?
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?”

Wednesday, February 22, 2017

चुनावी भजन

अब सौंप दिया है वोटों का भंडार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
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हममें तुममें बस भेद यही, हम जनता हैं, तुम नेता हो;
सत्ता के मैराथन में तुम निर्णायक, तुम्हीं विजेता हो |
जैसे-तैसे निर्मित करना सरकार, तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
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तुमसे ज्यादा उम्मीद नहीं, तुम मूड बदलते हो पल में;
बिन पेंदी के लोटे जैसे, कभी इस दल में, कभी उस दल में |
है राजनीति का यह सारा व्यापार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
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हम स्वेच्छा से मत देते हैं, उस पर भी घात लगाते हो;
इस लोकतंत्र के दंगल में सब अपने दाँव दिखाते हो |
हर साजिश, हर हथकंडा, हर हथियार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
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वादों की झोली फैलाकर फिर हमको दर्शन देते हैं;
यह भारत का गौरव है, याचक भी आश्वासन देते हैं |
कुछ काम करो, फिर हमने दिए अधिकार तुम्हारे हाथों में |
अब जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में ||
****

Wednesday, February 15, 2017

आओ हे ऋतुराज


आओ हे ऋतुराज, तुम्हारा स्वागत है,
बहुत दिनों के बाद सही, तुम आए तो |
***

बिछड़ गए पेड़ों से, लेकिन रो न सके,
मुरझाए पत्ते इतने मजबूर हुए;
रंग, रूप, रस और गंध के चित्रों से,
नयन हमारे जैसे कोसों दूर हुए |
पतझड़ जो हरियाली लेकर चला गया,
              उपवन तक फिर से लौटा कर लाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

उजड़े मौसम का हर पल युग जैसा था,
मौन अधर प्यासे, उदास, अकुलाए थे;
सूनी डालें राह निहारा करती थीं,
माली भी सूनेपन से घबराए थे |
लेकिन अंतर में अब कोई क्लेश नहीं,
              आज सुमन फिर आँगन में मुसकाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

मंजरियों की सुरभि हवाओं में फैली,
कलियों ने खिलकर सादर सत्कार किया;
रूप सृष्टि का आज निखर आया ऐसे,
जैसे कवि ने कविता का शृंगार किया |
आज तितलियों के पंखों ने गति पायी,
                चलो, भ्रमर फिर मस्ती में बौराए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***

 नयनों में, अधरों पर खुशियाँ छा जातीं,
राग-रंग फिर से यौवन को पा जाते;
हृदयों पर संदेश तुम्हारी खातिर था,
अच्छा होता जितनी जल्दी आ जाते |
बस मेरी बगिया की कोई बात नहीं,
                 कहीं और ही सही, कोकिला गाए तो | आओ हे ऋतुराज.....
***


Wednesday, February 1, 2017

पड़ताल

रेल की धड़धड़ाती आवाज़ के मुकाबले
और भी ज़ोर से धड़कता दिल |
आखिर किस वजह से?
शायद तुमसे मिलने की अकुलाहट,
शायद बहुत कुछ बताने की छटपटाहट,
शायद लंबे रास्ते के धीरे-धीरे कटने की झुंझलाहट,
या फिर शायद खयालों के दरवाजे पर बार-बार तुम्हारे आने की आहट !
कारण चाहे जो भी हो, निवारण कोई नहीं |
इस आवाज़ को सुनते हुए ही करनी है सारी यात्रा,
गुज़ारना है पूरा वक़्त और तय करना है ये लंबा सफर |
अब ये आवाज़ बेचैन करे,
या बेचैन होने से पहले मैं इसे अपना लूँ,
इसका आदी हो जाऊँ;
कुछ भी हो जाए, मगर अब ये हमसफर है, हमराह है |
ऐसा तो नहीं कि ये कोई सरफिरी सी चाह है?
जो सिर्फ देह के तल पर उठती है, और
देह को तोड़ती है, मरोड़ती है, निचोड़ती है, झकझोड़ती है,
चीखती है, चिचियाती है, तूफान मचाती है,
दिल-ओ-दिमाग तक खँगाल आती है |

दिल और दिमाग, मन और मस्तिष्क,
ये क्या देह के भाग हैं?
शायद नहीं !
ये देह से अलग कुछ हैं,
जिन पर देह का असर होता है,
और देह जिन पर असर करती है?
इस बात की पड़ताल में, धड़कती आवाज़ के सहारे,
मैं आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ, मगर
सिर्फ आवाज़ों के शीशों से टकराकर नीचे गिर जाता हूँ |
शीशे? हाँ, शीशे,
आवाज़ों के शीशे? हाँ भाई!
ये आवाज़ें सिर्फ आवाज़ें नहीं हैं, 
इनमें साथ चिपके हैं अनेक प्रतिबिंब,
हजारों चित्र, लाखों आकृतियाँ,
हँसती, मुसकुराती, डोलती, इठलाती,
रोती, कराहती, सिसकती, पुकारती,
रीझती, खीझती, रूठती, मनाती,
फटकारती, दुतकारती,
दुलारती, पुचकारती,
धुँधली, चमकती,
ठहरी, भटकती,
कभी नयनों को लुभाती, कभी आँखों को खटकती |

क्या इनके पार कुछ है?
क्या इनके पार जाया जा सकता है?
क्या इनके पार जाने की जरूरत है?
ये तीन प्रश्न फिर-फिर सामने खड़े हो जाते हैं |
इनमें से तीसरे प्रश्न का उत्तर यदि नहीं है
तो बात खतम;
लेकिन उत्तर यदि हाँ है तो फिर पहला प्रश्न सामने
कि क्या इनके पर कुछ है?
लेकिन इसका उत्तर नहीं पाया जा सकता
दूसरे प्रश्न को हल किए बिना
कि क्या इनके पर जाया जा सकता है?
लेकिन इस प्रश्न के साथ ही उपजता है एक चौथा प्रश्न
कि इनके पार कैसे जाया जा सकता है?
अब इस प्रश्न के ही इर्द-गिर्द घूमने लगता है
मेरा पूरा अस्तित्व, बार-बार, लगातार,
धड़धड़ाती, भड़भड़ाती आवाज़ में लिपटा |

-- आशुतोष द्विवेदी