रेल की धड़धड़ाती आवाज़ के मुकाबले
और भी ज़ोर से धड़कता दिल |
आखिर किस वजह से?
शायद तुमसे मिलने की अकुलाहट,
शायद बहुत कुछ बताने की छटपटाहट,
शायद लंबे रास्ते के धीरे-धीरे कटने की झुंझलाहट,
या फिर शायद खयालों के दरवाजे पर बार-बार तुम्हारे
आने की आहट !
कारण चाहे जो भी हो, निवारण
कोई नहीं |
इस आवाज़ को सुनते हुए ही करनी है सारी यात्रा,
गुज़ारना है पूरा वक़्त और तय करना है ये लंबा सफर |
अब ये आवाज़ बेचैन करे,
या बेचैन होने से पहले मैं इसे अपना लूँ,
इसका आदी हो जाऊँ;
कुछ भी हो जाए, मगर अब ये हमसफर
है, हमराह है |
ऐसा तो नहीं कि ये कोई सरफिरी सी चाह है?
जो सिर्फ देह के तल पर उठती है, और
देह को तोड़ती है, मरोड़ती है, निचोड़ती है, झकझोड़ती है,
चीखती है, चिचियाती है, तूफान मचाती है,
दिल-ओ-दिमाग तक खँगाल आती है |
दिल और दिमाग, मन और मस्तिष्क,
ये क्या देह के भाग हैं?
शायद नहीं !
ये देह से अलग कुछ हैं,
जिन पर देह का असर होता है,
और देह जिन पर असर करती है?
इस बात की पड़ताल में, धड़कती
आवाज़ के सहारे,
मैं आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ, मगर
सिर्फ आवाज़ों के शीशों से टकराकर नीचे गिर जाता हूँ
|
शीशे? हाँ, शीशे,
आवाज़ों के शीशे? हाँ भाई!
ये आवाज़ें सिर्फ आवाज़ें नहीं हैं,
इनमें साथ चिपके हैं अनेक प्रतिबिंब,
हजारों चित्र, लाखों आकृतियाँ,
हँसती, मुसकुराती, डोलती, इठलाती,
रोती, कराहती, सिसकती, पुकारती,
रीझती, खीझती, रूठती, मनाती,
फटकारती, दुतकारती,
दुलारती, पुचकारती,
धुँधली, चमकती,
ठहरी, भटकती,
कभी नयनों को लुभाती, कभी आँखों
को खटकती |
क्या इनके पार कुछ है?
क्या इनके पार जाया जा सकता है?
क्या इनके पार जाने की जरूरत है?
ये तीन प्रश्न फिर-फिर सामने खड़े हो जाते हैं |
इनमें से तीसरे प्रश्न का उत्तर यदि ‘नहीं’ है
तो बात खतम;
लेकिन उत्तर यदि ‘हाँ’ है तो फिर पहला प्रश्न सामने
कि क्या इनके पर कुछ है?
लेकिन इसका उत्तर नहीं पाया जा सकता
दूसरे प्रश्न को हल किए बिना
कि क्या इनके पर जाया जा सकता है?
लेकिन इस प्रश्न के साथ ही उपजता है एक चौथा प्रश्न
कि इनके पार कैसे जाया जा सकता है?
अब इस प्रश्न के ही इर्द-गिर्द घूमने लगता है
मेरा पूरा अस्तित्व, बार-बार, लगातार,
धड़धड़ाती, भड़भड़ाती आवाज़ में
लिपटा |
-- आशुतोष द्विवेदी