पीर गहरे में कहीं सोई पड़ी थी |
एक दिन लेकिन अचानक,
जागकर उसने बड़े अधिकार से मुझसे कहा -
वो व्यक्त होना चाहती है |
मैं बहुत घबरा गया पहले
मगर फिर एक लम्बी साँस लेकर और
अपने हाथ में उसके गुलाबी हाथ लेकर
कँपकँपाते होंठ से थोड़ी सी मोहलत मांग ली मैंने |
लगा फिर शब्द, लय, तुक, छंद के मैं काटने फेरे;
बहुत चक्कर लगाए व्याकरण की तंग गलियों के;
कई ताने बुने, बाने बुने, अनगिनत अफसाने बुने;
खुद को गलाने के समय भी हिचकिचाया मैं नहीं |
फिर एक रचना वो चुनी, जिसका हुआ अनुनाद पगली पीर से मेरी;
जिसे उस बाँवरी, बेचैन पीड़ा ने कहा अपना,
कि जिसको छेड़ते ही दर्द जैसे फूट पड़ता था,
कि जिसके चलन में गुमनाम दीये की जलन थी, और
जिसके रोम शबनम की फुहारों में नहाये थे |
कसम से, इस कलेवर में नए,
जब पीर मेरी कुछ लजाती सी खड़ी थी सामने मेरे;
मुझे ऐसा लगा जैसे कि मेरी जिंदगी कि साध पूरी हो गयी हो आज,
मेरी नियति से अब याचना मेरी नहीं कोई |
कुछ ऐसे ही निराले ढंग से कविता उतरती है |
कुछ ऐसे ही अनूठे तौर से अभिव्यक्त होती है |
कला है काव्य लेकिन बस मनोरंजन नहीं है यह;
इसे आकार देने में रचयिता खुद बिखरता है, उलझता है स्वयं में,
स्वयं से संघर्ष करता है;
इसी आयास में अक्सर कहीं पर टूट जाता है |
अलग है टूटना सबका, अलग सबकी कहानी है |
इसे तो सिर्फ कविता ही समझती है, न कोई और -
'किस कवि को कहाँ से टूटना है, और कैसे टूटना है, और कितना टूटना है |'
यह स्वयं कवि भी नहीं समझा कभी
इसलिए होकर वह समर्पित छोड़ देता है स्वयं को काव्य-धारा में |
ज़माने के लिए यह कठिन होता है बता पाना कि
रचना को रचयिता ने गढ़ा या रचयिता को गढ़ा रचना ने |
नहीं यह खेल कोई,
एक जीवन-वृत्त है पूरा,
जहां संघर्ष है, संवेग है, उल्लास भी, उन्माद भी, कुछ प्रेम, कुछ वैराग्य, थोड़ा अमिय, थोड़ा विष,
तनिक भय भी कहीं पर है, तनिक उत्साह भी; लेकिन
कहीं प्रतियोगिता का तत्त्व किंचित भी नहीं है, क्योंकि
तुलना ही नहीं है, क्योंकि
तुलना समर्पण के पंथ की बाधा प्रबलतम है,
सहज स्वीकार्यता के भाव का प्रतिषेध है तुलना,
सनातन सत्य के प्राकट्य में अवरोध है तुलना;
नहीं है चेतना में स्थान कोई प्रतिस्पर्द्धा का,
परम अस्तित्व में प्रतिद्वंद्विता हो ही नहीं सकती |
अतः कवि का निवेदन है --
कि यदि साहित्य-भाषा की गहनता को बढ़ाना,
कि यदि संवेदना के मूल्य का विस्तार करना है,
कि यदि चैतन्य के आनंद को पहचानना है तो,
कृपा कर काव्य को प्रतियोगिता से दूर ही रखिये |
गीत में फिर प्रीत की निर्बाध मादकता मिला दो | शब्द की तृष्णा बुझा दो, भाव की मदिरा पिला दो |
Friday, September 10, 2010
Monday, August 16, 2010
.....प्यास तो है
बहुत गहरे में कहीं तुमसे मिलन की आस तो है |
अधर गर्वीले नकारें लाख फिर भी प्यास तो है ||
(१)
शून्यता तो है कहीं जो बिन तुम्हारे भर न पाती,
इक चुभन भी है कि जो पीछे पड़ी दिन-रात मेरे |
दो नयन जादू भरे इस भांति भीतर बस गए हैं,
भूल पाना अब जिन्हें, बस कि नहीं है बात मेरे |
सौ बहाने मैं बना लूँ, झूम लूँ या गुनगुना लूँ ;
चित्त को अपनी अधूरी नियति का आभास तो है |
(२)
भूल जाऊँ किस तरह बेबाक होठों की शरारत ?
सेब जैसे रंग वाले गाल कैसे भूल जाऊँ ?
तारकों की पंक्तियों को मात करती मुस्कुराहट,
और चंदा को लजाता भाल कैसे भूल जाऊँ ?
आवरण मैं लाख डालूँ, स्वयं को खुद से छिपा लूँ;
पर जहां 'मैं' तक नहीं वह भी तुम्हारा वास तो है |
(३)
महकता आँचल कि जिसमें खिल उठे थे स्वप्न मेरे,
बिखरती अलकें कि जिनमें खो गयी मेरी जवानी |
थिरकते सब अंग, पुलकित रोम, गदरायी उमर वो;
बहकती जिनमें दिवानी हो गयी मेरी जवानी |
यम-नियम के ढोंग सारे, हर जतन के बाद हारे;
और मेरी इस पराजय का तुम्हें अहसास तो है |
(४)
देह की मधु-गंध नंदन को अकिंचन सिद्ध करती,
स्नेह-भीना स्पर्श मेरे प्राण में पीयूष भरता |
वत्सला चितवन सिखाती अप्सराओं को समर्पण,
और आलिंगन तुम्हारा मृत्यु का उपहास करता |
वे मधुर सुधियाँ बुलातीं, विरह की दूरी घटातीं;
गहनतम अँधियार में यह झलकता विश्वास तो है |
बहुत गहरे में कहीं तुमसे मिलन की आस तो है |
अधर गर्वीले नकारें लाख फिर भी प्यास तो है ||
हाँ! मैं जीवित हूँ
बालकनी पर शाम उतरती है तो मैं फिर जी उठता हूँ |
शाम पांच चालीस होते ही ऑफिस के उस मुर्दा घर से,
बीस-इकीस लाशों को लेकर,
एम्बुलेंस के जैसी छोटी बस (जिसको 'चार्टर्ड' कहते हैं)
आ जाती है छः चालीस तक,
और छोड़ जाती है सब लाशों को अपने-अपने घर तक |
घर, जिनमे 'घर' का प्रतिशत कितना है - यह मालूम नहीं है |
हाँ, दीवारें हैं, छत है और छोटी बालकनी भी |
मरे हुए इन लोगों में ही एक लाश मेरी भी है जो,
लिफ्ट पकड़कर चढ़ जाती है सबसे ऊपर की मंजिल पर |
चारदिवारी घिरी हुई है, छत भी है और बालकनी भी |
'घर' का प्रतिशत कितना है? शायद कुछ भी तो नहीं; और क्या?
दिन भर के उन कसे हुए कपड़ों के बंधन ढीले करके,
बालकनी पर आ जाता हूँ;
और बुझी आँखों से देखा करता हूँ ढलते सूरज को |
सिन्दूरी वह शाम अचानक जादू जैसे कर देती है;
भीतर बिखरे अंधियारे पर एक उजाला छा जाता है;
जाते-जाते सूरज कोई नयी प्रेरणा दे जाता है;
कुछ आशाएं भर जाता है, कुछ विश्वास बंधा जाता है;
इस उमंग में पागल होकर धड़कन थिरक-थिरक उठती है;
रोम-रोम अंतर-वीणा की झंकृति से पुलकित होता है;
और श्वास जो अब तक ठहरी थी, फिर से चलने लगती है;
कहीं दूर, गहरे भावों के स्वर गुंजित होने लगते हैं --
"हाँ! मैं जीवित हूँ, मैं मरा नहीं हूँ; हाँ! हाँ! मैं जीवित हूँ |"
शाम पांच चालीस होते ही ऑफिस के उस मुर्दा घर से,
बीस-इकीस लाशों को लेकर,
एम्बुलेंस के जैसी छोटी बस (जिसको 'चार्टर्ड' कहते हैं)
आ जाती है छः चालीस तक,
और छोड़ जाती है सब लाशों को अपने-अपने घर तक |
घर, जिनमे 'घर' का प्रतिशत कितना है - यह मालूम नहीं है |
हाँ, दीवारें हैं, छत है और छोटी बालकनी भी |
मरे हुए इन लोगों में ही एक लाश मेरी भी है जो,
लिफ्ट पकड़कर चढ़ जाती है सबसे ऊपर की मंजिल पर |
चारदिवारी घिरी हुई है, छत भी है और बालकनी भी |
'घर' का प्रतिशत कितना है? शायद कुछ भी तो नहीं; और क्या?
दिन भर के उन कसे हुए कपड़ों के बंधन ढीले करके,
बालकनी पर आ जाता हूँ;
और बुझी आँखों से देखा करता हूँ ढलते सूरज को |
सिन्दूरी वह शाम अचानक जादू जैसे कर देती है;
भीतर बिखरे अंधियारे पर एक उजाला छा जाता है;
जाते-जाते सूरज कोई नयी प्रेरणा दे जाता है;
कुछ आशाएं भर जाता है, कुछ विश्वास बंधा जाता है;
इस उमंग में पागल होकर धड़कन थिरक-थिरक उठती है;
रोम-रोम अंतर-वीणा की झंकृति से पुलकित होता है;
और श्वास जो अब तक ठहरी थी, फिर से चलने लगती है;
कहीं दूर, गहरे भावों के स्वर गुंजित होने लगते हैं --
"हाँ! मैं जीवित हूँ, मैं मरा नहीं हूँ; हाँ! हाँ! मैं जीवित हूँ |"
ग़ज़ल
(१)
भाषा में जो भाव बँधे, उनको सारी दुनिया समझे |
अंतरतम कि मूक साधना कोई सरल हिया समझे |
रास रचाने रात गए किस पागलपन में पाँव बढे?
इसे न मैं भी जानूं, केवल मेरा सांवरिया समझे |
उसके ही स्वर जग जाएँ तो फिर घर-घर हो रामायण,
एक व्यक्ति ऐसा जो सारे जग को राम-सिया समझे |
अँधियारे का एक लक्ष्य, बस उजियारे को ग्रस लेना,
इसी चुनौती को नन्हा सा जलता हुआ दिया समझे |
जिस दिन यह मन दास हुआ, उस दिन सारा स्वामित्व मिला,
रहे भिखारी तब तक, जब तक अपने को मुखिया समझे |
कवि का चित्त कि जो भटकन में ही आश्रय को खोज रहा,
और किसे यह चाह कि वो चातक का पिया-पिया समझे |
जाती है वह अमियमयी जिस ओर स्वर्ग बन जाता है,
इस महिमा को ‘आशुतोष’ कि छोटी सी कुटिया समझे |
(२)
यहाँ खामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है ?
मेरी आँखों में तेरी बेगुनाही कौन पढ़ता है ?
नुमाइश में लगी चीज़ों को मैला कर रहे हैं सब,
लिखी तख्तों पे - "छूने की मनाही" कौन पढ़ता है ?
जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो,
वहाँ बेचैन रातों की सियाही कौन पढ़ता है ?
ये वो महफिल है, जिसमें शोर करने की रवायत है,
दबे लब पर हमारी वाह-वाही कौन पढ़ता है ?
वो बाहर देखते हैं, औ' हमें मुफलिस समझते हैं,
खुदी जज्बों पे - अपनी बादशाही कौन पढ़ता है ?
जो खुशकिस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं,
लुटे आँगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है ?
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