Friday, September 10, 2010

काव्य / प्रतियोगिता

पीर गहरे में कहीं सोई पड़ी थी |
एक दिन लेकिन अचानक,
जागकर उसने बड़े अधिकार से मुझसे कहा -
वो व्यक्त होना चाहती है |
मैं बहुत घबरा गया पहले
मगर फिर एक लम्बी साँस लेकर और
अपने हाथ में उसके गुलाबी हाथ लेकर
कँपकँपाते होंठ से थोड़ी सी मोहलत मांग ली मैंने |

लगा फिर शब्द, लय, तुक, छंद के मैं काटने फेरे;
बहुत चक्कर लगाए व्याकरण की तंग गलियों के;
कई ताने बुने, बाने बुने, अनगिनत अफसाने बुने;
खुद को गलाने के समय भी हिचकिचाया मैं नहीं |
फिर एक रचना वो चुनी, जिसका हुआ अनुनाद पगली पीर से मेरी;
जिसे उस बाँवरी, बेचैन पीड़ा ने कहा अपना,
कि जिसको छेड़ते ही दर्द जैसे फूट पड़ता था,
कि जिसके चलन में गुमनाम दीये की जलन थी, और
जिसके रोम शबनम की फुहारों में नहाये थे |
कसम से, इस कलेवर में नए,
 जब पीर मेरी कुछ लजाती सी खड़ी थी सामने मेरे;
मुझे ऐसा लगा जैसे कि मेरी जिंदगी कि साध पूरी हो गयी हो आज,
मेरी नियति से अब याचना मेरी नहीं कोई |

कुछ ऐसे ही निराले ढंग से कविता उतरती है |
कुछ ऐसे ही अनूठे तौर से अभिव्यक्त होती है |
कला है काव्य लेकिन बस मनोरंजन नहीं है यह;
इसे आकार देने में रचयिता खुद बिखरता है, उलझता है स्वयं में,
स्वयं से संघर्ष करता है;
इसी आयास में अक्सर कहीं पर टूट जाता है |
अलग है टूटना सबका, अलग सबकी कहानी है |
इसे तो सिर्फ कविता ही समझती है, न कोई और -
'किस कवि को कहाँ से टूटना है, और कैसे टूटना है, और कितना टूटना है |'
यह स्वयं कवि भी नहीं समझा कभी
इसलिए होकर वह समर्पित छोड़ देता है स्वयं को काव्य-धारा में |
ज़माने के लिए यह कठिन होता है बता पाना कि
रचना को रचयिता ने गढ़ा या रचयिता को गढ़ा रचना ने |

नहीं यह खेल कोई,
एक जीवन-वृत्त है पूरा,
जहां संघर्ष है, संवेग है, उल्लास भी, उन्माद भी, कुछ प्रेम, कुछ वैराग्य, थोड़ा अमिय, थोड़ा  विष,
तनिक भय भी कहीं पर है, तनिक उत्साह भी; लेकिन
कहीं प्रतियोगिता का तत्त्व किंचित भी नहीं है, क्योंकि
तुलना ही नहीं है, क्योंकि
तुलना समर्पण के पंथ की बाधा प्रबलतम है,
सहज स्वीकार्यता के भाव का प्रतिषेध है तुलना,
सनातन सत्य के प्राकट्य में अवरोध है तुलना;
नहीं है चेतना में स्थान कोई प्रतिस्पर्द्धा का,
परम अस्तित्व में प्रतिद्वंद्विता हो ही नहीं सकती |

अतः कवि का निवेदन है --
कि यदि साहित्य-भाषा की गहनता को बढ़ाना,
कि यदि संवेदना के मूल्य का विस्तार करना है,
कि यदि चैतन्य के आनंद को पहचानना है तो,
कृपा कर काव्य को प्रतियोगिता से दूर ही रखिये |

No comments:

Post a Comment