बालकनी पर शाम उतरती है तो मैं फिर जी उठता हूँ |
शाम पांच चालीस होते ही ऑफिस के उस मुर्दा घर से,
बीस-इकीस लाशों को लेकर,
एम्बुलेंस के जैसी छोटी बस (जिसको 'चार्टर्ड' कहते हैं)
आ जाती है छः चालीस तक,
और छोड़ जाती है सब लाशों को अपने-अपने घर तक |
घर, जिनमे 'घर' का प्रतिशत कितना है - यह मालूम नहीं है |
हाँ, दीवारें हैं, छत है और छोटी बालकनी भी |
मरे हुए इन लोगों में ही एक लाश मेरी भी है जो,
लिफ्ट पकड़कर चढ़ जाती है सबसे ऊपर की मंजिल पर |
चारदिवारी घिरी हुई है, छत भी है और बालकनी भी |
'घर' का प्रतिशत कितना है? शायद कुछ भी तो नहीं; और क्या?
दिन भर के उन कसे हुए कपड़ों के बंधन ढीले करके,
बालकनी पर आ जाता हूँ;
और बुझी आँखों से देखा करता हूँ ढलते सूरज को |
सिन्दूरी वह शाम अचानक जादू जैसे कर देती है;
भीतर बिखरे अंधियारे पर एक उजाला छा जाता है;
जाते-जाते सूरज कोई नयी प्रेरणा दे जाता है;
कुछ आशाएं भर जाता है, कुछ विश्वास बंधा जाता है;
इस उमंग में पागल होकर धड़कन थिरक-थिरक उठती है;
रोम-रोम अंतर-वीणा की झंकृति से पुलकित होता है;
और श्वास जो अब तक ठहरी थी, फिर से चलने लगती है;
कहीं दूर, गहरे भावों के स्वर गुंजित होने लगते हैं --
"हाँ! मैं जीवित हूँ, मैं मरा नहीं हूँ; हाँ! हाँ! मैं जीवित हूँ |"
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