ग़ज़ल
(१)
भाषा में जो भाव बँधे, उनको सारी दुनिया समझे |
अंतरतम कि मूक साधना कोई सरल हिया समझे |
रास रचाने रात गए किस पागलपन में पाँव बढे?
इसे न मैं भी जानूं, केवल मेरा सांवरिया समझे |
उसके ही स्वर जग जाएँ तो फिर घर-घर हो रामायण,
एक व्यक्ति ऐसा जो सारे जग को राम-सिया समझे |
अँधियारे का एक लक्ष्य, बस उजियारे को ग्रस लेना,
इसी चुनौती को नन्हा सा जलता हुआ दिया समझे |
जिस दिन यह मन दास हुआ, उस दिन सारा स्वामित्व मिला,
रहे भिखारी तब तक, जब तक अपने को मुखिया समझे |
कवि का चित्त कि जो भटकन में ही आश्रय को खोज रहा,
और किसे यह चाह कि वो चातक का पिया-पिया समझे |
जाती है वह अमियमयी जिस ओर स्वर्ग बन जाता है,
इस महिमा को ‘आशुतोष’ कि छोटी सी कुटिया समझे |
(२)
यहाँ खामोश नज़रों की गवाही कौन पढ़ता है ?
मेरी आँखों में तेरी बेगुनाही कौन पढ़ता है ?
नुमाइश में लगी चीज़ों को मैला कर रहे हैं सब,
लिखी तख्तों पे - "छूने की मनाही" कौन पढ़ता है ?
जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो,
वहाँ बेचैन रातों की सियाही कौन पढ़ता है ?
ये वो महफिल है, जिसमें शोर करने की रवायत है,
दबे लब पर हमारी वाह-वाही कौन पढ़ता है ?
वो बाहर देखते हैं, औ' हमें मुफलिस समझते हैं,
खुदी जज्बों पे - अपनी बादशाही कौन पढ़ता है ?
जो खुशकिस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं,
लुटे आँगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है ?
No comments:
Post a Comment