शोर
मैं अकेला हूँ,
मगर ये शोर कैसा है,
मुझे घेरे हुए है जो
!
यहाँ कोई नहीं फिर
भी
न जाने कौन हैं वे
लोग,
मुझसे बोलते ही जा
रहे हैं जो !
कोई चिल्ला रहा मुझ
पर,
कोई है लड़ रहा मुझसे,
कोई पुचकारता है और
कोई व्यंग्य करता है
|
कोई करता हँसी मुझसे,
कोई है हँस रहा मुझ
पर |
कोई धकिया रहा है औ’
शिकायत कर रहा है –
ध्यान क्यों देता
नहीं मैं,
उसकी बातों पर?
कोई रूठा हुआ है -
देर तक बोला नहीं
मैं इसलिए,
उत्तर नहीं सूझा
मुझे जल्दी कोई,
मैं और करता क्या ?
मेरे भीतर लगी है
भीड़ सी,
अनगिनत चेहरों की,
कई परिचित, अपरिचित भी,
कई देखे हुए से पर
कहीं बिसरे हुए
यादों के अँधियारे, घने वन में,
उभरते, झाँकते, संकोच करते
अजनबी मन में |
मुझे बाँटा गया जैसे,
बड़े अनगढ़, बड़े बेडौल टुकड़ों में,
उछाला फिर गया उस
शोर करती भीड़ के आगे
कि लूटें जाएँ वे
टुकड़े मेरे अस्तित्व,
मेरे भाव के; उन धारणाओं के कि मैं exist करता हूँ |
मेरे टुकड़े ये मेरे
चाहने पर भी,
न जुड़ पायेंगे ऐसा
लग रहा मुझको |
अगर जुड़ भी गए तो
क्या मेरा अस्तित्व
वापस जी उठेगा,
और जीवित रह सकेगा
स्वयं के एकत्व में, अद्वैत में ?
यहाँ देकार्त का वह
कथन सहसा गूँज उठता है,
सुना मैंने कहीं –
“मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ |”
मगर ये हाल अपना देख
कर है लग रहा मुझको –
“मैं सोचा जा रहा हूँ, इसलिए मैं हूँ |”
“मैं देखा जा रहा हूँ, इसलिए मैं हूँ |”
“मैं जाना जा रहा हूँ, इसलिए मैं हूँ |”
“मैं समझा जा रहा हूँ, इसलिए मैं हूँ |”
यहाँ पर बर्कले की
याद आती है, बहुत ज्यादा,
अरे, प्लेटो के मानस-पुत्र,
शायद देखते होगे
कहीं से तुम
कि जो अनुभव किये
तुमने
वही अनुभव मुझे भी
हो रहे हैं,
क्यों अचानक?
दार्शनिक तो हूँ
नहीं कोई,
विचारक भी नहीं मैं,
बल्कि डरता हूँ
विचारों के जटिल जंजाल से
फिर भी मुझे वे
निठुर, कपटी घेर लेते हैं |
अभी कुछ थम गया हो
शोर,
ऐसा कुछ नहीं हैं |
कहीं कोलाहलों में
कुछ कमी आयी नहीं है |
मगर जैसा कि पहले कह
चुका हूँ मैं,
पुराने गीत के ज़रिये
कभी यूँ –
“कलरवों की हाट में हर क्षण,
मौन का अभ्यास करता
मन”
उसी संकल्प को पकड़े,
मेरे अस्तित्व का है
अंश कोई,
डुबकियाँ लेने लगा
जो दर्शनों की तीव्र धारा में |
वहाँ शंकर मिले
मुझको, कपिल भी साथ में थे,
एक-दूजे के गले में
डालकर बाहें, पुराने साथियों से,
मस्त, परमानन्द की मुस्कान होठों पर सजाए |
और मैं चकरा रहा था –
कह गए आचार्य ‘मल्ल प्रधान’ जिन मुनि को,
उन्हींके साथ
गल-बहियाँ खड़े हैं |
मगर शंका उन्होंने
ही मिटा दी
और उत्तर दे दिया
मेरे अ-पूछे प्रश्न का ऐसे कि
‘माया’ ही प्रकृति है औ’ ‘पुरुष’ ही ‘जीव’ है
एवं अवस्था ‘ब्रह्म’ है वह जबकि
प्रकृति पर पुरुष की
विजय होती है;
पुरुष की विजय क्या
है -
जान भर लेना प्रकृति
को पूर्णता से |
“ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः” का यही तात्पर्य है |
अलग हैं ढंग कहने के
मगर
सिद्धांत तो है एक
ही,
शायद मज़ा भी तो इसी
में है कि
अगणित हों तरीके वह
अनोखी बात कहने के,
कि जो संभव नहीं
कहनी, बहुत खुल के,
मगर, हाँ, कुछ इशारों में बताई जो गयी अब तक,
बतायी जा रही अब भी, बताई जा सकेगी और आगे भी |
कहाँ पर मैं निकल
आया,
नहीं यह डगर वह, जिसपर
शुरू चलना किया था |
छुड़ाकर, जान शायद भाग निकला भीड़ से मैं |
मगर जाऊँ कहाँ तक !
मेरे हिस्से अधिकतर
तो उन्हीं के बीच में हैं,
जिनसे बचकर भागता था
|
खड़ा हूँ मैं पुनः
कोलाहलों के बीच आकर |
फिर कोई है खीझता
मुझ पर,
कोई है झगड़ता मुझसे,
कोई दुलरा रहा है और
कोई दे रहा ताने |
कोई करता ठिठोली,
औ’ कोई उपहास करता है |
मुझे महसूस होता है
कभी यूँ भी,
कि जैसे इन सभी के
प्रति मेरा दायित्त्व है कुछ,
जो निभाना है मुझे
हर हाल में,
पर क्या सरल है यह?
नहीं, बिलकुल नहीं |
कभी लगता है ऐसा भी,
कि जैसे सब भरम है
यह,
कि जैसे एक सपना है,
अभी यह टूट जायेगा,
खुलेगी आँख तो कुछ
और सच होगा;
मगर सपनों के भीतर
भी
तहें सपनों की होती
हैं कई,
ऐसे कि जैसे प्याज
के छिलके |
खुली आँखें हों, टूटी नींद हो
फिर भी वो सपने
जागते हैं,
साथ चलते हैं,
उसी अंदाज़ में,
जैसे कि वो बिंदास
रहते थे,
हसीना नींद की मरमरी
बाहों में |
वहीँ पर प्रश्न अटका
है अभी भी,
सत्य क्या है –
खिलखिलाता शोर या
फिर कँपकँपाती शांति,
आखिर मैं चुनूँ
किसको?
सही थे आप हे सुकरात, हे परिपूर्ण यूनानी,
कि कहते थे –
“मुझे बस ज्ञात है इतना कि
मुझको ज्ञात है कुछ भी नहीं”
सही थे आप हे
सिद्धार्थ गौतम, बुद्ध थे सच में,
कि सारे प्रश्न वे
जग के कि जो हल हो नहीं सकते,
धरा बस मौन उन पर और
‘अव्याकृत’ कहा उनको |
मगर उस पार थे दोनों,
नदी की धार के उस
दूसरे तट पर,
जहाँ से दशा और दिशा
नदी की स्पष्टतर दिखती |
फँसा हूँ मैं नदी के
वेग में औ’ बह रहा हूँ,
चाहता हूँ समझना मैं
भी तटों की बात,
लेकिन कर नहीं सकता
कि मेरी स्थिति बहुत
विपरीत है इसके |
मगर मैं चार्वाकों
की शरण में जा नहीं सकता,
मुझे जँचते नहीं वे,
जब बताते हैं कि “केवल देह सच है,
मर गई जब देह तो कुछ
भी न बचता |”
देखता हूँ मैं कि
मैं फिर भी बचा हूँ,
बँट गयी है देह, मन भी बँट चुका है,
श्वास की सब डोरियाँ
उलझी हुई हैं,
धडकनों के तार सब
टूटे पड़े हैं,
और मैं बिखरा हुआ सा,
दूर तक फैला हुआ सा
देखता असहाय सा
निस्तब्ध होकर
मैं स्वयं को |
ओ मेरे विटगेन्सटाइन, सच बताना
किस मनःस्थिति में
बनायीं तुमने
सीमाएं विचारों की |
हुए नाराज़ क्यों
इतने कि माने ही नहीं आखिर,
रसेल के, मूर के, सबके मनाने पर ?
-- आशुतोष द्विवेदी
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