Thursday, September 25, 2014

कविता

शब्दों को चूने दो,
अब धरती छूने दो
भावों की शाखों,
विचारों की डाली से;
हैं  पक चुके अब ये,
हैं भर चुके अब ये
जीवन के रस से,
अनुभव की हुलस से;
अब अधरों पर छाने दो,
भीतर तक जाने दो
आनंद कविता का,
गीतों की सरिता का
संगम हो जाएगा
सपनों की नदिया से,
भीतर की दुनिया से
आवाज़ें आती हैं,
अब तक बुलाती हैं,
ना जाने किसको वे !
अब चाहे जिसको, वे
चुप ही हो जायेंगी
जब गुनगुनायेंगी,
रस पी पी जायेंगी
उन पक्के शब्दों का
जिनमें मधुरता है
भीनी मादकता है
उन्मत्त करती जो
वो उड़ान भरती जो – 
तिरता रहता है मन
नभ में करता क्रीड़न
बादल के  टुकड़ों से,
चिड़ियों की टोली से,
तारों की झिलमिल से,
चंदा की महफ़िल से
चीज़ें चुरा लेता
जिनको छुपा लेता
यादों के झोले में,
मुस्कानें, उम्मीदें,
फुरसत, सुकूँ, नींदें;
सूरज से बचता है,
जलने से डरता है,
फिर भी कभी
छेड़ आता है धीरे से;
ऐसे आज़ादी है
अवसर जो देती है
अपनी हर सीमा से
बाहर निकलने का,
खुलकर मचलने का,
जीने का, मरने का,
या फिर सच्चे अर्थों में
प्यार करने का |

-- आशुतोष द्विवेदी 







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