छन्द, रचकर जिन्हें हम मगन हो गए,
सब तुम्हारी कृपा से भजन हो गए |
(१)
उठ रही है अगुरु-गंध हर पंक्ति से,
यूँ सुवासित हुई चिर-प्रणय-साधना |
गीत में गुंजरित शंख की मुक्त-ध्वनि,
यूँ मुखर हो गयी मौन आराधना |
आज वेदान्त-वाचक अधर बन गए,
योग के दिव्य साक्षी नयन हो गए |
(२)
बुद्धि के संशयों ने बड़े दुःख दिए,
चित्त की चपलता ने नचाया बहुत |
तामसिक देह ने सौ भुलावे रचे,
लक्ष्य से दूर हमको भगाया बहुत |
किन्तु करुणा तुम्हारी अपरिमित, अचल;
शून्य क्षण में सकल दुर्व्यसन हो गए |
(३)
वेदनाएं सभी सीढ़ियाँ बन गयीं,
द्वार तक जो तुम्हारे चढ़ाती रहीं |
और अवहेलनायें, मिलीं विश्व से,
पाठ तुमसे मिलन का पढ़ाती रहीं |
प्रेम-पारस छुआ प्राण ने जिस घड़ी,
अश्रु सारे हमारे, रतन हो गए |
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