ढोते ही रहते हैं संबंधों को,
आदत सी पड़ी हुई है कंधों को ।
गिर गिर कर सौ सौ बार उठे होंगे !
फिर फिर अपनों के हाथ लुटे होंगे !
ऊपर ऊपर झूठी मुसकान लिए,
भीतर भीतर हर साँस घुटे होंगे !
पर छिप न सकी भावों की लाचारी,
चेहरे पर झलकी मन की बीमारी;
फिर भी जाने कैसे हैं ये अपने?
दुख दिखा न आँखों वाले अंधों को ।१
जब जब संवेदन का तूफान बढा़,
बहला फुसला कर मन को किया कड़ा;
अपनेपन का दायित्व निभाने में,
अपने को चौराहों पर किया खड़ा ।
दुविधाओं से टकराते लहर लहर,
डूबते रहे उतराते रहे मगर;
फिर भी जाने क्यों बूझ नहीं पाए,
भावुकता के इन गोरख धंधों को ? २
नेकी करके दरिया में डाल दिया,
अपने अगणित सपनों को मार दिया;
उनको यह साधारण सी बात लगी,
जिन पर अपनी साँसों को वार दिया ।
खुद से ही रूठे, खुद से ही माने,
आया न कभी कोई जी बहलाने ;
फिर भी जाने किस लिए निभाते हैं
जीवन के अनचाहे अनुबंधों को ? ३