आज फिर कुछ तप्त-लोहित प्रश्न
मेरे सामने हैं
और ये अंगार मुझको कर-तलों में
थामने हैं
प्रश्न - मैं क्यों जी रहा हूँ ? क्या
बचाना चाहता हूँ?
रक्त सा क्या पी रहा हूँ? क्या मिटाना चाहता हूँ ?
ज़िन्दगी सन्यास जैसी; क्या
छिपाना चाहता हूँ ?
कल्पना मधुमास जैसी ? क्या
दिखाना चाहता हूँ?
संस्कृति के गीत गाता; पल
रहा प्रतिशोध कैसा?
कंठ में गाँठें लगाता ? एक
सतत विरोध कैसा?
काइयाँपन खून में है? बेहया
मुस्कान मुख पर !
सभ्यता पतलून में है ? शराफत की शान मुख पर !
फोन पर रिश्ते निभाता; क्रांति
के उपदेश घर पर;
प्यार पर कविता सुनाता ? और
दफ़्तर - सिर्फ "यस सर" ?
भीड़ का हो चुका जीवन; नौकरी क्यों कर रहा हूँ ?
भीड़ से भयभीत है मन ? रोज़
घुट-घुट मर रहा हूँ ?
कुछ नहीं अपनी खबर है; मोह
है परिवार से भी;
खो न जाँऊ, मगर, डर है ? ऊबता इस भार से भी?
भटकता भ्रम के धुएं में? मुक्ति
की दरकार भी है;
या कि मेंढक सा कुएं में? बन्धनों
से प्यार भी है ?
कवच में खुद को लपेटे? वृद्ध
संयम जूझता, फिर उलझता
किसी कछुए सा समेटे ? है
जटिलता में,
संशयों के सूत्र सारे पकड़ रख
काम ने हैं..........
आज फिर……...
-- आशुतोष द्विवेदी
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