कही न जाए बात प्यार की, ज़ुबाँ क्यों अटक जाती है?
बात गले तक आते-आते जाने क्यों थक जाती है?
कैसी है उधेड़बुन जिसने उलझाए रखा मन को?
क्या है यह कस्तूरी जो भरमाए जाती जीवन को?
लगातार भटकाती जाए भूल-भुलैया भावों की,
रह जाती है बहुत ज़रा सी गुंजाइश ठहरावों की |
ठहरावों में सदा रही फिर नए सफर की तैयारी,
हँसने वाली आँखों में भी छिपी कहीं कुछ नमी रही;
कोई गीत जिसे पूरा करने में इतने गीत रचे,
उसके पूरा होने में हर बार ज़रा सी कमी रही |
लेकिन, कहाँ हार सकता मन सदा तुम्हारी चाह लिए,
फिर-फिर निकले चरण राह में रोज़ नया उत्साह लिए |
नए गीत छलके आँखों से, नए छंद परवान चढ़े,
अर्थों के पट पर शब्दों ने नए-नए प्रतिमान गढ़े |
कायम रहे तिलिस्म तुम्हारा, पल-पल मन को याद रहा,
तभी तुम्हारा नाम मुझे गूँगे के गुड़ का स्वाद रहा;
आँख खोलती जिस कविता की नज़रें तुम पर उठ जाएं,
कसमों-बिंधे होठ कैसे फिर उस कविता को गा पाएं?
एहतियात इतनी बरती फिर भी सुगंध सी बिखर गई,
इस भँवरे का फूल कहाँ है? कली-कली तक खबर गई |
हर तितली को पता चल गया, हर मधुमक्खी जान गई,
भँवरे की अनबोली चाहत हर क्यारी पहचान गई;
वही फूल बेखबर रहा बस, अपनी धुन में मस्त रहा,
केवल जिसके कारण भँवरा गुनगुन का अभ्यस्त रहा |
बागीचे भर गाता फिरता, हर कोने हो आता है,
उस गुल के ही इर्द-गिर्द भँवरा क्यों चुप हो जाता है?
जिस गुनगुन पर इतराता है, मात उसी से खा जाता,
और कभी टोको तो उड़ते-उड़ते यूँ दोहरा जाता -
'पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है |'
-- आशुतोष द्विवेदी
बात गले तक आते-आते जाने क्यों थक जाती है?
कैसी है उधेड़बुन जिसने उलझाए रखा मन को?
क्या है यह कस्तूरी जो भरमाए जाती जीवन को?
लगातार भटकाती जाए भूल-भुलैया भावों की,
रह जाती है बहुत ज़रा सी गुंजाइश ठहरावों की |
ठहरावों में सदा रही फिर नए सफर की तैयारी,
हँसने वाली आँखों में भी छिपी कहीं कुछ नमी रही;
कोई गीत जिसे पूरा करने में इतने गीत रचे,
उसके पूरा होने में हर बार ज़रा सी कमी रही |
लेकिन, कहाँ हार सकता मन सदा तुम्हारी चाह लिए,
फिर-फिर निकले चरण राह में रोज़ नया उत्साह लिए |
नए गीत छलके आँखों से, नए छंद परवान चढ़े,
अर्थों के पट पर शब्दों ने नए-नए प्रतिमान गढ़े |
कायम रहे तिलिस्म तुम्हारा, पल-पल मन को याद रहा,
तभी तुम्हारा नाम मुझे गूँगे के गुड़ का स्वाद रहा;
आँख खोलती जिस कविता की नज़रें तुम पर उठ जाएं,
कसमों-बिंधे होठ कैसे फिर उस कविता को गा पाएं?
एहतियात इतनी बरती फिर भी सुगंध सी बिखर गई,
इस भँवरे का फूल कहाँ है? कली-कली तक खबर गई |
हर तितली को पता चल गया, हर मधुमक्खी जान गई,
भँवरे की अनबोली चाहत हर क्यारी पहचान गई;
वही फूल बेखबर रहा बस, अपनी धुन में मस्त रहा,
केवल जिसके कारण भँवरा गुनगुन का अभ्यस्त रहा |
बागीचे भर गाता फिरता, हर कोने हो आता है,
उस गुल के ही इर्द-गिर्द भँवरा क्यों चुप हो जाता है?
जिस गुनगुन पर इतराता है, मात उसी से खा जाता,
और कभी टोको तो उड़ते-उड़ते यूँ दोहरा जाता -
'पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है |'
-- आशुतोष द्विवेदी