Tuesday, November 11, 2025

अँधियार है

 रात है, काला समंदर, दूर तक अँधियार है,

इस तिमिर में डूबता व्यक्तित्व बारंबार है।

कल्पनाएं सब शिथिल, संवेदनाएं सुप्त हैं,

चेतना की मंत्रणाएं गुप्त से अतिगुप्त हैं।

बोझ एकाकी पलों का आयु पर भारी हुआ,

निर्दयी घबराहटों का दौर फिर जारी हुआ।

शोर सागर की तरंगों का मुखर होने लगा,

भीत सन्नाटा अचानक भयंकर होने लगा।

आँख कुछ तो देखती है, क्या, मगर अंजान है!

कान जो कुछ सुन रहे हैं, वह निरा अनुमान है।

संशयों की एक सेना सी खड़ी है सामने,

घेर रखा बुद्धि-मन के आपसी संग्राम ने।

जाल भ्रम का हर नए पल और भी होता कसा,

चित्त आकर फॅंस गया है व्यूह में, सौभद्र सा।

हाॅं, सही है, भाग जाने के कई अवसर मिले,

पर न साहस हो सका, हर बार इतने डर मिले।

फिर, यहाॅं, सागर किनारे था कोई ठहराव भी,

इसलिए उपजा हृदय में कुछ विचित्र लगाव भी।

यह लगाव, खिंचाव यह, जन्मों पुराना लग रहा,

भटकनों का बस यही अंतिम ठिकाना लग रहा।

लग रहा संघर्ष ही यह शांति लेकर आएगा,

लग रहा यह द्वंद्व ही निर्द्वंद्व तक पहुंचाएगा।

लग रहा जैसे कि जीवन वस्तुतः  अँधियार है,

या कि यह तम ही सकल अस्तित्व का आधार है।